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अधा॑ मा॒तुरु॒षसः॑ स॒प्त विप्रा॒ जाये॑महि प्रथ॒मा वे॒धसो॒ नॄन्। दि॒वस्पु॒त्रा अङ्गि॑रसो भवे॒माद्रिं॑ रुजेम ध॒निनं॑ शु॒चन्तः॑ ॥१५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhā mātur uṣasaḥ sapta viprā jāyemahi prathamā vedhaso nṝn | divas putrā aṅgiraso bhavemādriṁ rujema dhaninaṁ śucantaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध॑। मा॒तुः। उ॒षसः॑। स॒प्त। विप्राः॑। जाये॑महि। प्र॒थ॒माः। वे॒धसः॑। नॄन्। दि॒वः। पु॒त्राः। अङ्गि॑रसः। भ॒वे॒म॒। अद्रि॑म्। रु॒जे॒म॒। ध॒निन॑म्। शु॒चन्तः॑॥१५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:2» मन्त्र:15 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब इस अगले मन्त्र में राजा के विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (उषसः) प्रभातवेला के दिन के समान सात प्रकार के किरणें होते हैं, वैसे ही (मातुः) माता के सदृश वर्त्तमान विद्या से हम लोग (प्रथमाः) प्रथम प्रसिद्ध (विप्राः) बुद्धिमान् (सप्त) सात प्रकार के अर्थात् राजा, प्रधान, मन्त्री, सेना, सेना के अध्यक्ष, प्रजा और चारादि (जायेमहि) होवें और (वेधसः) बुद्धिमान् (नॄन्) नायक पुरुषों को प्राप्त हों और (दिवः) प्रकाश के (पुत्राः) विस्तारनेवाले (अङ्गिरसः) जैसे प्राणवायु (अद्रिम्) मेघ को वैसे शत्रु को (रुजेम) छिन्न-भिन्न करें (अध) इसके अनन्तर (धनिनम्) बहुत धनयुक्त प्रजा में विद्यमान को (शुचन्तः) विद्या और विनय से पवित्र करते हुए (भवेम) प्रसिद्ध होवें ॥१५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा लोग बुद्धिमान् मन्त्रियों का सत्कार करके रक्षा करते हैं, वे सूर्य्य के सदृश प्रकाशित यशवाले होते हैं और सभी काल में उद्योगियों की रक्षा और दुष्टों का निरन्तर ताड़न करें, जिससे कि सब शुद्ध आचरणवाले होवें ॥१५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजविषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथोषसः सप्तविधाः किरणा जायन्ते तथैव मातुर्विद्याया वयं प्रथमा विप्राः सप्त जायेमहि। वेधसो नॄन् प्राप्नुयाम दिवस्पुत्रा अङ्गिरसोऽद्रिमिव शत्रून् रुजेमाऽध धनिनं शुचन्तः प्रशंसिता भवेम ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) आनन्तर्य्ये (मातुः) मातृवद्वर्त्तमानाया विद्यायाः (उषसः) प्रभातवेलाया दिनमिव (सप्त) राजप्रधानाऽमात्यसेनासेनाध्यक्षप्रजाचाराः (विप्राः) धीमन्तः (जायेमहि) (प्रथमाः) प्रख्याता आदिमाः (वेधसः) प्राज्ञान् (नॄन्) नायकान् (दिवः) प्रकाशस्य (पुत्राः) तनयाः (अङ्गिरसः) प्राणा इव (भवेम) (अद्रिम्) मेघमिव शत्रुम् (रुजेम) प्रभग्नान् कुर्य्याम (धनिनम्) बहुधनवन्तं प्रजास्थम् (शुचन्तः) विद्याविनयाभ्यां पवित्राः ॥१५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजानो बुद्धिमतोऽमात्यान् सत्कृत्य रक्षन्ति ते सूर्य इव प्रकाशितकीर्त्तयो भवन्ति सर्वदैव व्यवसायिनो रक्षित्वा दुष्टान् सततं ताडयेयुर्येन सर्वे पवित्राचाराः स्युः ॥१५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजे लोक बुद्धिमान मंत्र्यांचा सत्कार करून रक्षण करतात ते सूर्याप्रमाणे प्रकाशित कीर्ती प्राप्त करणारे असतात. सदैव उद्योगी लोकांचे रक्षण करून दुष्टांचे निरंतर ताडन करावे. ज्यामुळे सर्व शुद्ध आचरण करणारे असावेत. ॥ १५ ॥