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नाहमतो॒ निर॑या दु॒र्गहै॒तत्ति॑र॒श्चता॑ पा॒र्श्वान्निर्ग॑माणि। ब॒हूनि॑ मे॒ अकृ॑ता॒ कर्त्वा॑नि॒ युध्यै॑ त्वेन॒ सं त्वे॑न पृच्छै ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nāham ato nir ayā durgahaitat tiraścatā pārśvān nir gamāṇi | bahūni me akṛtā kartvāni yudhyai tvena saṁ tvena pṛcchai ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। अ॒हम्। अतः॑। निः। अ॒य॒। दुः॒ऽगहा॑। ए॒तत्। ति॒र॒श्चता॑। पा॒र्श्वात्। निः। ग॒मा॒नि॒। ब॒हूनि॑। मे॒। अकृ॑ता। कर्त्वा॑नि। युध्यै॑। त्वे॒न॒। सम्। त्वे॒न॒। पृ॒च्छै॒ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:18» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:25» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर दृष्टान्त से पूर्वोक्त विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (अहम्) मैं (दुर्गहा) दुःख से प्राप्त होने योग्यों का नाश करनेवाला (न) न होऊँ (पार्श्वात्) पाश से (निः, गमानि) जाऊँ (मे) मेरे (बहूनि) बहुत (अकृता) न किये गये (कर्त्वानि) कर्त्तव्य कर्म हैं (तिरश्चता) तिरछे बाँके से (त्वेन) किससे (युध्यै) युद्ध करूँ (त्वेन) अन्य से (सम्, पृच्छै) पूछूँ, वैसे आप (अतः) इस कारण से (एतत्) इस पूर्वोक्त को (निः) अत्यन्त (अय) प्राप्त होओ ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे मैं कर्म नहीं करता हूँ और करके न किये गये न रखता हूँ, मेरे साथ जो युद्ध की इच्छा करे, उसके साथ युद्ध में पूछने योग्य को पूछता हूँ, वैसे इस सब का आचरण करो ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्दृष्टान्तेन पूर्वोक्तमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यथाऽहं दुर्गहा न भवेयं पार्श्वान्निर्गमाणि मे बहून्यकृता कर्त्वानि कर्माणि सन्ति तिरश्चता त्वेन युध्यै त्वेन सम्पृच्छै तथात्वमत एतन्निरय ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) (अहम्) (अतः) अस्मात् (निः) नितराम् (अय) प्राप्नुहि (दुर्गहा) यो दुर्गान् दुःखेन गन्तुं योग्यान् हन्ति (एतत्) (तिरश्चता) तिरश्चीनेन (पार्श्वात्) (निः) (गमानि) गच्छेयम् (बहूनि) (मे) मम (अकृता) अकृता (कर्त्वानि) कर्त्तव्यानि (युध्यै) युद्धं कुर्याम् (त्वेन) केन (सम्) (त्वेन) अन्येन (पृच्छै) पृच्छेयम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथाऽहं कर्म न करोमि कृत्वाऽकृतानि न रक्षामि मया सह योद्धुमिच्छेत्तेन सह युद्धे प्रष्टव्यं पृच्छामि तथैतत्सर्वमाचर ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे मी (वाईट) कर्म करीत नाही व केलेल्याची आणि न केलेल्याची राखण करत नाही. माझ्याबरोबर जो युद्धाची इच्छा करतो, त्याच्याबरोबर युद्ध करताना विचारण्यास योग्य असलेल्यांना विचारतो. तसे सर्वांनी आचरण करावे. ॥ २ ॥