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भि॒नद्गि॒रिं शव॑सा॒ वज्र॑मि॒ष्णन्ना॑विष्कृण्वा॒नः स॑हसा॒न ओजः॑। वधी॑द्वृ॒त्रं वज्रे॑ण मन्दसा॒नः सर॒न्नापो॒ जव॑सा ह॒तवृ॑ष्णीः ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bhinad giriṁ śavasā vajram iṣṇann āviṣkṛṇvānaḥ sahasāna ojaḥ | vadhīd vṛtraṁ vajreṇa mandasānaḥ sarann āpo javasā hatavṛṣṇīḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

भि॒नत्। गि॒रिम्। शव॑सा। वज्र॑म्। इ॒ष्णन्। आ॒विः॒ऽकृ॒ण्वा॒नः। स॒ह॒सानः। ओजः॑। वधी॑त्। वृ॒त्रम्। वज्रे॑ण। म॒न्द॒सा॒नः। सर॑न्। आपः॑। जव॑सा। ह॒तऽवृ॑ष्णीः ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:17» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:21» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जैसे सूर्य (गिरिम्) पर्वत के समान मेघ को (भिनत्) विदीर्ण कर और (वज्रेण) किरण से (वृत्रम्) मेघ का (वधीत्) नाश करता है, उस नाश हुए मेघ से (हतवृष्णीः) नष्ट किया गया मेघ जिनका वह (आपः) जल (जवसा) वेग से (सरन्) जाते हैं, वैसे ही (मन्दसानः) आनन्द वा (सहसानः) सहन करते (ओजः) और पराक्रम को (आविष्कृण्वानः) प्रकट करते वा (वज्रम्) किरण के समान शस्त्र को (इष्णन्) प्राप्त होते हुए (शवसा) बल से शत्रुओं की सेना का नाश करो और सेना से शत्रुओं का नाश करके रुधिरों को बहाओ ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग सूर्य्य के सदृश न्याय से प्रकाश बल से प्रसिद्ध, दुष्टों के नाशकारक और श्रेष्ठ पुरुषों के लिये आनन्ददायक होते हैं, वे ही प्रकट यशवाले होकर इस संसार में और परलोक अर्थात् दूसरे जन्म में अखण्ड आनन्दवाले होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यथा सूर्य्यो गिरिं भिनद्वज्रेण वृत्रं वधीत् तद्धतान्मेघाद्धतवृष्णीरापो जवसा सरंस्तथैव मन्दसानः सहसान ओज आविष्कृण्वानो वज्रमिष्णञ्छवसा शत्रुसेनां विदारय च सेनया शत्रून् हत्वा रुधिराणि प्रवाहय ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (भिनत्) भिनत्ति विदृणाति (गिरिम्) गिरिवद्वर्त्तमानं मेघम् (शवसा) बलेन (वज्रम्) किरणमिव शस्त्रम् (इष्णन्) प्राप्नुवन् (आविष्कृण्वानः) प्राकट्यं कुर्वन् (सहसानः) सहमानः। अत्र वर्णव्यत्ययेन मस्य सः। (ओजः) पराक्रमम् (वधीत्) हन्ति (वृत्रम्) मेघम् (वज्रेण) किरणेन (मन्दसानः) आनन्दन् (सरन्) गच्छन्ति। अत्राडभावः (आपः) जलानि (जवसा) वेगेन (हतवृष्णीः) हतो वृषा मेघो यासां ताः ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्य्यवन्न्यायप्रकाशबलप्रसिद्धा दुष्टविदारकाः सत्पुरुषेभ्य आनन्दप्रदा वर्त्तन्ते त एव प्रकटकीर्त्तयो भूत्वेहाऽमुत्र परजन्मन्यक्षयाऽऽनन्दा जायन्ते ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक सूर्यप्रकाशाप्रमाणे न्यायाने बलवान बनून प्रसिद्ध होतात. दुष्टांचे नाशकारक व श्रेष्ठ पुरुषांसाठी आनंददायक असतात तेच प्रकट यश मिळवून इहलोकी व परलोकी अखंड आनंदी असतात. ॥ ३ ॥