ग॒व्यन्त॒ इन्द्रं॑ स॒ख्याय॒ विप्रा॑ अश्वा॒यन्तो॒ वृष॑णं वा॒जय॑न्तः। ज॒नी॒यन्तो॑ जनि॒दामक्षि॑तोति॒मा च्या॑वयामोऽव॒ते न कोश॑म् ॥१६॥
gavyanta indraṁ sakhyāya viprā aśvāyanto vṛṣaṇaṁ vājayantaḥ | janīyanto janidām akṣitotim ā cyāvayāmo vate na kośam ||
ग॒व्यन्तः॑। इन्द्र॑म्। स॒ख्याय॑। विप्राः॑। अ॒श्व॒ऽयन्तः॑। वृष॑णम्। वा॒जय॑न्तः। ज॒नि॒ऽयन्तः॑। ज॒नि॒ऽदाम्। अक्षि॑तऽऊतिम्। आ। च्य॒व॒या॒मः॒। अ॒व॒ते। न। कोश॑म् ॥१६॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब प्रजाजनों को कैसे सुख और ऐश्वर्य हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ प्रजाभ्यः कथं सुखमैश्वर्यं चाह ॥
हे मनुष्या ! यथा गव्यन्तोऽश्वायन्तो वाजयन्तो जनीयन्तो विप्रा वयं सख्याय वृषणं जनिदामक्षितोतिमवते कोशं नेन्द्रमाच्यावयामस्तथैतं यूयमप्येनमन्यान् प्रापयत ॥१६॥