क्षि॒यन्तं॑ त्व॒मक्षि॑यन्तं कृणो॒तीय॑र्ति रे॒णुं म॒घवा॑ स॒मोह॑म्। वि॒भ॒ञ्ज॒नुर॒शनि॑माँइव॒ द्यौरु॒त स्तो॒तारं॑ म॒घवा॒ वसौ॑ धात् ॥१३॥
kṣiyantaṁ tvam akṣiyantaṁ kṛṇotīyarti reṇum maghavā samoham | vibhañjanur aśanimām̐ iva dyaur uta stotāram maghavā vasau dhāt ||
क्षि॒यन्त॑म्। त्व॒म्। अक्षि॑यन्तम्। कृ॒णो॒ति॒। इय॑र्ति। रे॒णुम्। म॒घऽवा॑। स॒म्ऽओह॑म्। वि॒ऽभ॒ञ्ज॒नुः। अ॒शनि॑मान्ऽइव। द्यौः। उ॒त। स्तो॒तार॑म्। म॒घऽवा॑। वसौ॑। धा॒त् ॥१३॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब राजा को उत्तम और अनुत्तम का दण्ड और सत्कार करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथा राज्ञोत्तमानुत्तमयोर्दण्डसत्कारौ कर्त्तव्यावित्याह ॥
हे राजन् ! यथा मघवा स्तोतारं वसौ धात्तथा यो द्यौरिवोताप्यशनिमानिव विभञ्जनुस्सन् मघवा क्षियन्तमक्षियन्तं कृणोति समोहं रेणुमियर्त्ति तं त्वं शिक्षय ॥१३॥