वांछित मन्त्र चुनें

त्वं म॒हाँ इ॑न्द्र॒ तुभ्यं॑ ह॒ क्षा अनु॑ क्ष॒त्रं मं॒हना॑ मन्यत॒ द्यौः। त्वं वृ॒त्रं शव॑सा जघ॒न्वान्त्सृ॒जः सिन्धूँ॒रहि॑ना जग्रसा॒नान् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam mahām̐ indra tubhyaṁ ha kṣā anu kṣatram maṁhanā manyata dyauḥ | tvaṁ vṛtraṁ śavasā jaghanvān sṛjaḥ sindhūm̐r ahinā jagrasānān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। म॒हान्। इ॒न्द्र॒। तुभ्य॑म्। ह॒। क्षाः। अनु॑। क्ष॒त्रम्। मं॒हना॑। म॒न्य॒त॒। द्यौः। त्वम्। वृ॒त्रम्। शव॑सा। ज॒घ॒न्वान्। सृ॒जः। सिन्धू॑न्। अहि॑ना। ज॒ग्र॒सा॒नान् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:17» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:21» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:1


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब इक्कीस ऋचावाले सत्रहवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य राजगुणों का वर्णन करते हैं ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त राजन् ! जो (त्वम्) आप (महान्) बड़े (क्षाः) भूमियों और (क्षत्रम्) राज्य को (मंहना) महान् जैसे (द्यौः) सूर्य्य वैसे (अनु, मन्यत) मानते हो (ह) उन्हीं (तुभ्यम्) आपके लिये हम लोग भी मानते और जैसे (वृत्रम्) मेघ के सदृश वर्त्तमान शत्रु को (जघन्वान्) नाश करनेवाला (अहिना) मेघ के सदृश बड़े हुए धन से (सिन्धून्) नदियों को (सृजः) उत्पन्न करावे उसी प्रकार (त्वम्) आप (शवसा) बल से (जग्रसानान्) शत्रुसेना के अग्रणियों के समान उत्तम जनों को उत्पन्न कराओ ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे राजसम्बन्धी जनो ! जैसे बड़ा सूर्य वृष्टि से नदियों को पूर्ण करता है, वैसे ही धन और ऐश्वर्य्य से राज्य को शोभित करो। राजा की आज्ञा के अनुकूल वर्त्ताव करके बड़े राज्य को सम्पादन करो ॥१॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेन्द्रपदवाच्यराजगुणानाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यस्त्वं महान् क्षाः क्षत्रं मंहना द्यौरिवानुमन्यत तस्मै ह तुभ्यं वयमपि मन्यामहे यथा वृत्रं जघन्वान् सूर्य्योऽहिना सिन्धून् [सृजः] सृजति तथा त्वं शवसा जग्रसानान् सृजः ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) महान् (इन्द्र) विद्यैश्वर्यसम्पन्न राजन् ! (तुभ्यम्) (ह) खलु (क्षाः) भूमयः। क्षेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (अनु) (क्षत्रम्) राज्यम् (मंहना) महती (मन्यत) मन्यसे (द्यौः) सूर्य्य इव (त्वम्) (वृत्रम्) मेघवद्वर्त्तमानं शत्रुम् (शवसा) बलेन (जघन्वान्) (सृजः) सृज (सिन्धून्) नदीः (अहिना) मेघेनेव धनेन (जग्रसानान्) शत्रुसेनाग्रसमानान् ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे राजजना ! यथा महान् सूर्य्यो वृष्ट्या नदीः प्रीणाति तथैव धनैश्वर्य्येण राज्यमलङ्कुर्वन्तु राजाऽऽज्ञयाऽनुवर्त्य महद्राज्यं सम्पादयन्तु ॥१॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात इंद्र, राजा, प्रजा व सेवक यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे राजपुरुषांनो! जसा प्रचंड सूर्य वृष्टीने नद्यांना पूर्ण करतो तसेच धन व ऐश्वर्याने राज्य शोभित करा. राजाज्ञेप्रमाणे वागून मोठ्या राज्याचे संपादन करा. ॥ १ ॥