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अ॒पो वृ॒त्रं व॑व्रि॒वांसं॒ परा॑ह॒न्प्राव॑त्ते॒ वज्रं॑ पृथि॒वी सचे॑ताः। प्रार्णां॑सि समु॒द्रिया॑ण्यैनोः॒ पति॒र्भव॒ञ्छव॑सा शूर धृष्णो ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apo vṛtraṁ vavrivāṁsam parāhan prāvat te vajram pṛthivī sacetāḥ | prārṇāṁsi samudriyāṇy ainoḥ patir bhavañ chavasā śūra dhṛṣṇo ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒पः। वृ॒त्रम्। व॒व्रि॒ऽवांस॑म्। परा॑। अ॒ह॒न्। प्र। आ॒व॒त्। ते॒। वज्र॑म्। पृ॒थि॒वी। सऽचे॑ताः। प्र। अर्णां॑सि। स॒मु॒द्रिया॑णि। ऐ॒नोः॒। पतिः॑। भव॑न्। शव॑सा। शू॒र॒। धृ॒ष्णो॒ इति॑ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:16» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:18» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (धृष्णो) दृढ़ आत्मावाले (शूर) वीरपुरुष ! (सचेताः) चित्त के सहित वर्त्तमान (शवसा) बल से (पतिः) स्वामी (भवन्) होते हुए आप जैसे सूर्य्य (वज्रम्) किरणरूपी वज्र को फटकार (अपः) जलों को प्रकट करते (वृत्रम्) मेघ को (वव्रिवांसम्) फैल प्रकट (परा, अहन्) मारता और (समुद्रियाणि) समुद्र के योग्य (अर्णांसि) जलों की (पृथिवी) पृथिवी के सदृश (प्र, आवत्) रक्षा करता है, वैसे (ते) आपकी जो प्रजा की रक्षा करके शत्रुओं का नाश करे उसको आप (प्र, ऐनोः) प्रेरणा करो ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग सूर्य के सदृश प्रजाओं को सुख देते हैं, वे ही राजकर्म्मों में प्रेरणा करने योग्य होते हैं ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे धृष्णो शूर ! सचेताः शवसा पतिर्भवन्संस्त्वं यथा सूर्य्यो वज्रं प्रहृत्यापो वृत्रं वव्रिवांसं पराहन् समुद्रियाण्यर्णांसि पृथिवीव प्रावत् तथा ते यः प्रजां रक्षित्वा शत्रून् हन्यात्तं त्वं प्रैनोः ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अपः) जलानि (वृत्रम्) मेघम् (वव्रिवांसम्) विवृतम् (परा) (अहन्) हन्ति (प्र, आवत्) रक्षति (ते) तव (वज्रम्) किरणरूपम् (पृथिवी) (सचेताः) चेतसा सहितः (प्र) (अर्णांसि) उदकानि (समुद्रियाणि) समुद्रार्हाणि (ऐनोः) प्रेरयेः (पतिः) स्वामी (भवन्) (शवसा) बलेन (शूर) (धृष्णो) दृढात्मन् ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्य्यवत्प्रजाः सुखयन्ति त एव राजकर्मसु प्रेरणीयाः सन्ति ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक सूर्याप्रमाणे प्रजेला सुख देतात त्यांनाच राजकर्मात प्रेरणा दिली पाहिजे. ॥ ७ ॥