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नू ष्टु॒त इ॑न्द्र॒ नू गृ॑णा॒न इषं॑ जरि॒त्रे न॒द्यो॒३॒॑ न पी॑पेः। अका॑रि ते हरिवो॒ ब्रह्म॒ नव्यं॑ धि॒या स्या॑म र॒थ्यः॑ सदा॒साः ॥२१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nū ṣṭuta indra nū gṛṇāna iṣaṁ jaritre nadyo na pīpeḥ | akāri te harivo brahma navyaṁ dhiyā syāma rathyaḥ sadāsāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नु। स्तु॒तः। इ॒न्द्र॒। नु। गृ॒णा॒नः। इष॑म्। ज॒रि॒त्रे। नद्यः॑। न। पी॒पे॒रिति॑ पीपेः। अका॑रि। ते॒। ह॒रि॒ऽवः॒। ब्रह्म॑। नव्य॑म्। धि॒या। स्या॒म॒। र॒थ्यः॑। स॒दा॒ऽसाः ॥२१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:16» मन्त्र:21 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:20» मन्त्र:6 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:21


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (हरिवः) उत्तम घोड़ों से युक्त (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् राजन् ! आप (गृणानः) प्रशंसा करते हुए (जरित्रे) स्तुति करनेवाले के लिये (नद्यः) नदियों के (न) सदृश (इषम्) अन्न आदि ऐश्वर्य की (नु) शीघ्र (पीपेः) वृद्धि करावें और जिन सब लोगों से (नु) शीघ्र (स्तुतः) आप प्रशंसित (अकारि) किये गये उन जनों से (ते) आपके लिये (नव्यम्) नवीन (ब्रह्म) सङ्ख्यारहित धन को (सदासाः) सेवकों के सहित वर्त्तमान हम लोग (धिया) बुद्धि वा कर्म से (रथ्यः) वाहनों के निमित्त मार्ग के सदृश सिद्ध कर चुकनेवाले (स्याम) हों ॥२१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य परीक्षा करनेवाला, सब जगह प्रशंसित और नदी के सदृश प्रजाओं के तृप्तिकर्त्ता, अश्वसमान सुखपूर्वक दूसरे स्थान को पहुँचानेवाला होवे, उसको सर्वाधीश करके नौकरों के सहित हम उसकी आज्ञा के अनुकूल वर्त्ताव करके सब लोग निरन्तर सुखी होवें ॥२१॥ इस सूक्त में इन्द्र, राजा, मन्त्री और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥२१॥ यह सोलहवाँ सूक्त और बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे हरिव इन्द्र ! त्वं गृणानस्सञ्जरित्रे नद्यो नेषन्नु पीपेर्यैस्सर्वैर्नु स्तुतोऽकारि तैस्ते तुभ्यं नव्यं ब्रह्म सदासा वयं धिया रथ्यो न कृतवन्तः स्याम ॥२१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नु) सद्यः। अत्र सर्वत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (स्तुतः) प्रशंसितः (इन्द्र) (नु) (गृणानः) प्रशंसन् (इषम्) अन्नाद्यैश्वर्यम् (जरित्रे) स्तावकाय (नद्यः) (न) इव (पीपेः) प्यायय (अकारि) (ते) तव (हरिवः) प्रशंसिताऽश्वः (ब्रह्म) असङ्ख्यं धनम् (नव्यम्) नवीनम् (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (स्याम) (रथ्यः) रथेषु साधुः (सदासाः) दासैः सेवकैस्सह वर्त्तमानाः ॥२१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । यो मनुष्यः परीक्षकः सर्वत्र प्रशंसितो नदीवत्प्रजानां तर्प्पकोऽश्व इव सुखेन स्थानान्तरं गमयिता भवेत् तं सर्वाधीशं कृत्वा सभृत्या वयं तदाऽज्ञायां वर्त्तित्वा सर्वे सततं सुखिनो भवेमेति ॥२१॥ अत्रेन्द्रराजाऽमात्यविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥२१॥ इति षोडशं सूक्तं विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो माणूस परीक्षक, सर्व स्थानी प्रशंसनीय व नदीप्रमाणे प्रजेचा तृप्तिकर्ता, अश्वाप्रमाणे सुखपूर्वक दुसऱ्या ठिकाणी पोचविणारा असेल तर त्याला सर्वाधीश करून नोकरांसह आम्ही त्याच्या आज्ञेनुसार वर्तन करून सर्व लोकांनी निरंतर सुखी व्हावे. ॥ २१ ॥