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परि॒ वाज॑पतिः क॒विर॒ग्निर्ह॒व्यान्य॑क्रमीत्। दध॒द्रत्ना॑नि दा॒शुषे॑ ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pari vājapatiḥ kavir agnir havyāny akramīt | dadhad ratnāni dāśuṣe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

परि॑। वाज॑ऽपतिः। क॒विः। अ॒ग्निः। ह॒व्यानि॑। अ॒क्र॒मी॒त्। दध॑त्। रत्ना॑नि। दा॒शुषे॑ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:15» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:15» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अग्निविषय का वर्णन अगले मन्त्र में करते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (वाजपतिः) अन्न आदिकों का स्वामी (कविः) सम्पूर्ण विद्याओं का जाननेवाला (अग्निः) बिजुली के सदृश वर्त्तमान (दाशुषे) देनेवाले के लिये (रत्नानि) रमण करने योग्य धनों को (दधत्) धारण करता हुआ (हव्यानि) देने योग्य पदार्थों का (परि, अक्रमीत्) परिक्रमण करता अर्थात् समीप होता, वही निरन्तर सुखी होता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे देनेवाले अन्यों के लिये उत्तम वस्तुओं को देते हैं, वैसे ही अग्नि क्योंकि दूसरे को सुख देने के लिये अग्नि के गुण होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरग्निविषयमाह ॥

अन्वय:

यो वाजपतिः कविरग्निरिव दाशुषे रत्नानि दधत् सन् हव्यानि पर्य्यक्रमीत् स एव सततं सुखी जायते ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (परि) (वाजपतिः) अन्नादीनां स्वामी (कविः) सकलविद्यावित् (अग्निः) विद्युद्वद्वर्त्तमानः (हव्यानि) दातुं योग्यानि (अक्रमीत्) क्राम्यति (दधत्) धरन् (रत्नानि) रमणीयानि धनानि (दाशुषे) दात्रे ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा दातारोऽन्यार्थान्युत्तमानि वस्तूनि ददति तथैवाऽग्निः यतः परसुखायाग्नेर्गुणा भवन्तीति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे दाते इतरांसाठी उत्तम वस्तू देतात तसाच अग्नीही असतो. अग्नीचे गुण दुसऱ्यांना सुख देणारे असतात. ॥ ३ ॥