वांछित मन्त्र चुनें

इळा॑मग्ने पुरु॒दंसं॑ स॒निं गोः श॑श्वत्त॒मं हव॑मानाय साध। स्यान्नः॑ सू॒नुस्तन॑यो वि॒जावाग्ने॒ सा ते॑ सुम॒तिर्भू॑त्व॒स्मे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iḻām agne purudaṁsaṁ saniṁ goḥ śaśvattamaṁ havamānāya sādha | syān naḥ sūnus tanayo vijāvāgne sā te sumatir bhūtv asme ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इळा॑म्। अ॒ग्ने॒। पु॒रु॒ऽदंस॑म्। स॒निम्। गोः। श॒श्व॒त्ऽत॒मम्। हव॑मानाय। सा॒ध॒। स्यात्। नः॒। सू॒नुः। तन॑यः। वि॒जाऽवा॑। अ॒ग्ने॒। सा। ते॒। सु॒ऽम॒तिः। भू॒तु॒। अ॒स्मे इति॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:7» मन्त्र:11 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:2» मन्त्र:6 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:11


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अपने शरीरात्मा के प्रकाश से युक्त विद्वान् ! आप (पुरुदंसम्) बहुत कर्मोंवाली (सनिम्) सम्यक् सेवन की हुई (इळाम्) प्रशंसा के योग्य वाणी को (साध) साधो (गोः) पृथिवी के बीच (हवमानाय) ग्रहण करते हुए के अर्थ (शश्वत्तमम्) सदैव वर्त्तमान विज्ञान को सिद्ध करो जिससे (नः) हमारा (विजावा) विशेष कर प्रसिद्ध (तनयः) विद्या और सुख का प्रचार करनेहारा (सूनुः) सन्तान (स्यात्) होवे। हे (अग्ने) विद्वन् ! (ते) आपकी (सा) वह (सुमतिः) उत्तम बुद्धि (अस्मे) हमारे लिये (भूतु) हो ॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि सदैव विद्यायुक्त वाणी और बुद्धि को प्राप्त हो सन्तानों को उत्तम शिक्षा दे के अनादिरूप सुख को प्राप्त होवें और सदैव सत्यवादी विद्वानों की बुद्धि सर्वत्र फैलावें ॥११॥ इस सूक्त में अग्नि सूर्य्य और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह सातवाँ सूक्त और दूसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने ! त्वं पुरुदंसं सनिमिळां साध। गोर्मध्ये हवमानाय शश्वत्तमं विज्ञानं साध येन नस्तनयो विजावा सूनुः स्यात्। हे अग्ने ते तव सा सुमतिरस्मे भूतु ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इळाम्) प्रशंसनीयां वाचम् (अग्ने) प्रकाशात्मन् (पुरुदंसम्) पुरूणि दंसांसि कर्माणि विद्यन्ते यस्य तम् (सनिम्) संभजमानाम् (गोः) पृथिव्या मध्ये (शश्वत्तमम्) सदैव वर्त्तमानम् (हवमानाय) आददानाय (साध) (स्यात्) भवेत् (नः) अस्माकम् (सूनुः) अपत्यम् (तनयः) विद्यासुखप्रचारकः (विजावा) विशेषेण प्रसिद्धः (अग्ने) विद्वन् (सा) (ते) तव (सुमतिः) शोभना चासौ मतिश्च सा सुमतिः (भूतु) भवतु (अस्मे) अस्मभ्यम् ॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सदैव विद्यायुक्तां वाचं प्रज्ञां च प्राप्य सुशिक्षितान् सन्तानान् कृत्वाऽनादिभूतं सुखं प्राप्तव्यं सदैवाऽऽप्तानां प्रज्ञा सर्वत्र प्रसारणीयेति ॥११॥ अत्राऽग्निसूर्य्यविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति सप्तमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी सदैव विद्यायुक्त वाणी व बुद्धी प्राप्त करावी, संतानांना उत्तम शिक्षण द्यावे व अनादि सुख प्राप्त करावे. सदैव सत्यवादी विद्वानांची बुद्धी सर्वत्र पसरवावी. ॥ ११ ॥