इ॒मा उ॑ वां भृ॒मयो॒ मन्य॑माना यु॒वाव॑ते॒ न तुज्या॑ अभूवन्। क्व१॒॑त्यदि॑न्द्रावरुणा॒ यशो॑ वां॒ येन॑ स्मा॒ सिनं॒ भर॑थः॒ सखि॑भ्यः॥
imā u vām bhṛmayo manyamānā yuvāvate na tujyā abhūvan | kva tyad indrāvaruṇā yaśo vāṁ yena smā sinam bharathaḥ sakhibhyaḥ ||
इ॒माः। ऊँ॒ इति॑। वा॒म्। भृ॒मयः॑। मन्य॑मानाः। यु॒वाऽव॑ते। न। तुज्याः॑। अ॒भू॒व॒न्। क्व॑। त्यत्। इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒। यशः॑। वा॒म्। येन॑। स्म॒। सिन॑म्। भर॑थः। सखि॑ऽभ्यः॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब अठारह ऋचावाले बासठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में मित्र, अध्यापक और उपदेशकों के विषय को कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ मित्राध्यापकोपदेशकविषयमाह।
हे अध्यापकोपदेशकौ या वामिमा मन्यमाना भृमयो युवावते तुज्या नाभूवन् तथा कुरुतम्। हे इन्द्रावरुणा येन वां सखिभ्यः सिनं स्म भरथस्त्यद्यशो वामु क्वास्ति ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात मित्र, अध्यापक, शिकणारे, श्रोते, उपदेशक, परमात्मा, विद्वान, प्राण व उदान इत्यादी गुणांचे वर्णन करण्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.