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अच्छा॑ वो दे॒वीमु॒षसं॑ विभा॒तीं प्र वो॑ भरध्वं॒ नम॑सा सुवृ॒क्तिम्। ऊ॒र्ध्वं म॑धु॒धा दि॒वि पाजो॑ अश्रे॒त्प्र रो॑च॒ना रु॑रुचे र॒ण्वसं॑दृक्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

acchā vo devīm uṣasaṁ vibhātīm pra vo bharadhvaṁ namasā suvṛktim | ūrdhvam madhudhā divi pājo aśret pra rocanā ruruce raṇvasaṁdṛk ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अच्छ॑। वः॒। दे॒वीम्। उ॒षस॑म्। वि॒ऽभा॒तीम्। प्र। वः॒। भ॒र॒ध्व॒म्। नम॑सा। सु॒ऽवृ॒क्तिम्। ऊ॒र्ध्वम्। म॒धु॒धा। दि॒वि। पाजः॑। अ॒श्रे॒त्। प्र। रो॒च॒ना। रु॒रु॒चे॒। र॒ण्वऽस॑न्दृक्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:61» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:8» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (रण्वसन्दृक्) सुन्दर पदार्थों के दिखाने (रोचना) रुचि करने और (मधुधा) मधुर पदार्थों को धारण करनेवाली (दिवि) प्रकाश में (वः) आप लोगों को (प्र, रुरुचे) अच्छी लगती है और जिससे (वः) आप लोगों के (ऊर्ध्वम्) उत्तम (पाजः) बल का (अश्रेत्) श्रवण करती है, उस (देवीम्) प्रकाशमान और आप लोगों और (विभातीम्) अनेक पदार्थों को प्रकाशित करती हुई (सुवृक्तिम्) उत्तम प्रकार वर्त्तमान (उषसम्) प्रभातवेला को (नमसा) वज्र अर्थात् बिजुली के साथ आप लोग (अच्छ) उत्तम प्रकार (प्र, भरध्वम्) पुष्ट कीजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - जैसे प्रातःकाल को सेवन करते हुए लोग उत्तम बल को प्राप्त होते हैं, वैसे ही स्नेहपात्र पतिव्रता स्त्री को प्राप्त होकर पुरुष शरीर आत्मबल और आरोग्यपन को प्राप्त होते हैं, जिससे दोनों के सदृश होने पर प्रेम बढ़ै ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या या रण्वसन्दृग्रोचना मधुधा दिवि वो युष्मान् प्र रुरुचे। यया वो युष्माकमूर्ध्वं पाजोऽश्रेत् तां देवीं युष्मान् विभातीं सुवृक्तिमुषसं नमसा यूयमच्छ प्र भरध्वम् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अच्छ) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वः) युष्मान् (देवीम्) देदीप्यमानाम् (उषसम्) प्रातर्वेलाम् (विभातीम्) विविधान् पदार्थान् प्रकाशयन्तीम् (प्र) (वः) युष्माकम् (भरध्वम्) (नमसा) वज्रेण विद्युता सह (सुवृक्तिम्) सुष्ठु वर्त्तमानाम् (ऊर्ध्वम्) उत्कृष्टम् (मधुधा) या मधूनि दधाति (दिवि) प्रकाशे (पाजः) बलम् (अश्रेत्) श्रयति (प्र) (रोचना) रुचिकरी (रुरुचे) रोचते (रण्वसंदृक्) या रण्वान्ररमणीयान्पदार्थान् सन्दर्शयति सा ॥५॥
भावार्थभाषाः - यथा प्रातर्वेलां सेवमाना जना उत्कृष्टं बलं प्राप्नुवन्ति तथैव हृद्यां पतिव्रतां भार्यां प्राप्य पुरुषः शरीरात्मबलाऽऽरोग्यानि प्राप्नोति यतो द्वयोः सदृशयोः सत्योर्रुचिर्वर्धेत ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे प्रातःकाळी लोक उत्तम बल प्राप्त करतात तसे हृद्य पतिव्रता स्त्री मिळाल्यामुळे पुरुष आत्मबल व आरोग्य प्राप्त करतो. दोघेही सारखेच असल्यामुळे प्रेम वाढते. ॥ ५ ॥