इ॒हेह॑ वो॒ मन॑सा ब॒न्धुता॑ नर उ॒शिजो॑ जग्मुर॒भि तानि॒ वेद॑सा। याभि॑र्मा॒याभिः॒ प्रति॑जूतिवर्पसः॒ सौध॑न्वना य॒ज्ञियं॑ भा॒गमा॑न॒श॥
iheha vo manasā bandhutā nara uśijo jagmur abhi tāni vedasā | yābhir māyābhiḥ pratijūtivarpasaḥ saudhanvanā yajñiyam bhāgam ānaśa ||
इ॒हऽइ॑ह। वः॒। मन॑सा। ब॒न्धुता॑। न॒रः॒। उ॒शिजः॑। ज॒ग्मुः॒। अ॒भि। तानि॑। वेद॑सा। याभिः॑। मा॒याभिः। प्रति॑जूतिऽवर्पसः। सौध॑न्वनाः। य॒ज्ञिय॑म्। भ॒गम्। आ॒न॒श॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब सात ऋचावाले साठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में राजविषय का उपदेश करते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ राजविषयमाह।
हे नरो या उशिजो मनसेहेह वो या बन्धुता तया तान्यभिजग्मुर्याभिर्मायाभिः प्रतिजूतिवर्पसो वेदसा सौधन्वनाः सन्तो यज्ञियं भागमानश ते भाग्यशालिनो भवन्ति ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात राजा, मंत्री व प्रजा यांच्या कृत्याचे वर्णन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.