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पु॒रा॒णमोकः॑ स॒ख्यं शि॒वं वां॑ यु॒वोर्न॑रा॒ द्रवि॑णं ज॒ह्नाव्या॑म्। पुनः॑ कृण्वा॒नाः स॒ख्या शि॒वानि॒ मध्वा॑ मदेम स॒ह नू स॑मा॒नाः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

purāṇam okaḥ sakhyaṁ śivaṁ vāṁ yuvor narā draviṇaṁ jahnāvyām | punaḥ kṛṇvānāḥ sakhyā śivāni madhvā madema saha nū samānāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु॒रा॒णम्। ओकः॑। स॒ख्यम्। शि॒वम्। वा॒म्। यु॒वोः। न॒रा॒। द्रवि॑णम्। ज॒ह्नाव्या॑म्। पुन॒रिति॑। कृ॒ण्वा॒नाः। स॒ख्या। शि॒वानि॑। मध्वा॑। म॒दे॒म॒। स॒ह। नु। स॒मा॒नाः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:58» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

जो शिल्पी विद्वानों के साथ और लोग परस्पर मित्रता करें तो क्या पावें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरा) नायक सभा और सेना के ईशो ! (वाम्) आप दोनों (पुराणम्) प्राचीनकाल से सिद्ध (ओकः) सब ऋतुओं में सुख देनेवाले स्थान के तुल्य (शिवम्) कल्याण करनेवाले (सख्यम्) मित्र के कर्म को प्राप्त हूजिये और (जह्नाव्याम्) त्याग करनेवाले की नीति में (युवोः) तुम दोनों को (द्रविणम्) धन प्राप्त हो (पुनः) फिर (शिवानि) सुख करनेवाले (सख्या) मित्र के कर्मों को (कृण्वानाः) करते हुए (समानाः) तुल्य और उत्तम गुण कर्म स्वभाववाले हम लोग (मध्वा) मधुरभाव के (सह) साथ (नु) शीघ्र (मदेम) आनन्द करैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् और अविद्वान् लोग परस्पर मैत्री करैं, वे अनादिसिद्ध कल्याणकारक ब्रह्म ऐश्वर्य और विज्ञान को प्राप्त होकर धार्मिक होते हुए दुष्ट व्यसनों का त्याग करके सदा ही सुखी होवें ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

यदि शिल्पिविद्वद्भिरन्ये परस्परं मैत्रीं कुर्य्युस्तर्हि किं प्राप्नुयुरित्याह।

अन्वय:

हे नरा नायकौ सभासेनेशौ वां पुराणमोक इव शिवं सख्यमाप्नोतु। जह्नाव्यां युवोर्द्रविणं मिलतु पुनः शिवानि सख्या कृण्वानाः समाना वयं मध्वा सह नु मदेम ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पुराणम्) पुरातनम् (ओकः) सर्वर्त्तुसुखप्रदं स्थानमिव (सख्यम्) सख्युः कर्म मित्रत्वम् (शिवम्) कल्याणकरम् (वाम्) (युवोः) (नरा) नायकौ (द्रविणम्) धनम् (जह्नाव्याम्) जह्नोस्त्यक्तुरियं नीतिस्तस्याम्। अत्राकाराऽकारयोर्व्यत्ययः। (पुनः) (कृण्वानाः) कुर्वन्तः (सख्या) सुहृदः कर्माणि (शिवानि) सुखकराणि (मध्वा) मधुरभावेन (मदेम) आनन्देम (सह) (नु) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (समानाः) तुल्योत्तमगुणकर्मस्वभावाः ॥६॥
भावार्थभाषाः - यदि विद्वांसोऽविद्वांसश्च परस्परं मैत्रीं कुर्युस्ते सनातनं शिवं ब्रह्मैश्वर्य्यं विज्ञानञ्च प्राप्य धार्मिकास्सन्तो दुष्टानि व्यसनानि विहाय सदैव सुखिनः स्युः ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वान व अविद्वानांनी परस्पर मैत्री करावी. अनादि सिद्ध कल्याणकारी ब्रह्म, ऐश्वर्य व विज्ञान प्राप्त करून धार्मिक बनावे. दुष्ट व्यसनांचा त्याग करून सदैव सुखी रहावे. ॥ ६ ॥