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मो षू णो॒ अत्र॑ जुहुरन्त दे॒वा मा पूर्वे॑ अग्ने पि॒तरः॑ पद॒ज्ञाः। पु॒रा॒ण्योः सद्म॑नोः के॒तुर॒न्तर्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mo ṣū ṇo atra juhuranta devā mā pūrve agne pitaraḥ padajñāḥ | purāṇyoḥ sadmanoḥ ketur antar mahad devānām asuratvam ekam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मो इति॑। सु। नः॒। अत्र॑। जु॒हु॒र॒न्त॒। दे॒वाः। मा। पूर्वे॑। अ॒ग्ने॒। पि॒तरः॑। प॒द॒ऽज्ञाः। पु॒रा॒ण्योः। सद्म॑नोः। के॒तुः। अ॒न्तः। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:55» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:28» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

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पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वन् ! जो (पुराण्योः) अनादि काल से सिद्ध बिजुली और आकाश रूप प्रकृतियों (सद्मनोः) सबके रहने के स्थानों और (देवानाम्) पृथिवी आदि वा जीवों के (अन्तः) मध्य में (केतुः) ज्ञानस्वरूप (महत्) बड़ा (एकम्) अपने सदृश द्वितीय पदार्थ रहित ब्रह्म (असुरत्वम्) प्राणों में क्रीडा करता हुआ है (अत्र) इस ब्रह्म वा विज्ञान के व्यवहार में (नः) हम लोगों को (पदज्ञाः) प्राप्त होने योग्य के जाननेवाले (पूर्वे) प्रथम उत्पन्न हुए (पितरः) विज्ञानवाले (मो) नहीं (जुहुरन्त) प्रसहन करें और (देवाः) विद्वान् लोग इस विज्ञानरूप व्यवहार में हम लोगों को (मा) नहीं (सु) उत्तम प्रकार सहें, इस प्रकार आप भी यह जान के आपको ये लोग न सहें ॥२॥
भावार्थभाषाः - वे ही इस संसार में विद्वान् जन पिता के सदृश होवें कि जो प्रकृति आदि पदार्थों में व्याप्त सर्वान्तर्य्यामी ब्रह्म को उत्तम प्रकार जान के अन्यों को जनावें ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

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अन्वय:

हे अग्ने यत्पुराण्योः सद्मनोर्देवानामन्तः केतुर्महदेकमसुरत्वमस्त्यत्र नो अस्मान् पदज्ञाः पूर्वे पितरो मो जुहुरन्त देवा अत्रास्मान् मा सु जुहुरन्तैवं त्वमप्येतद्विज्ञाय त्वामेते मा जुहुरन्त ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मो) निषेधे (सु) (नः) अस्मान् (अत्र) अस्मिन् ब्रह्मणि विज्ञानव्यवहारे वा (जुहुरन्त) प्रसहन्ताम् (देवाः) विद्वांसः (मा) निषेधे (पूर्वे) प्रथमजाः (अग्ने) विद्वन् (पितरः) विज्ञानवन्तः (पदज्ञाः) ये पदं प्राप्तव्यं जानन्ति ते (पुराण्योः) सनातन्योर्विद्युदाकाशरूपयोः प्रकृत्योः (सद्मनोः) सर्वेषां निवासस्थानयोः (केतुः) ज्ञानस्वरूपम् (अन्तः) मध्ये व्याप्तम् (महत्) (देवानाम्) पृथिव्यादीनां जीवानां वा (असुरत्वम्) प्राणेषु क्रीडमानम् (एकम्) अद्वितीयं ब्रह्म ॥२॥
भावार्थभाषाः - त एवाऽस्मिञ्जगति विद्वांसो जनका इव भवेयुर्ये प्रकृत्यादिषु व्याप्तं सर्वान्तर्य्यामि ब्रह्म सम्यग् विज्ञाय विज्ञापयेयुः ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या जगात तेच विद्वान लोक माता व पिता यांच्याप्रमाणे असतात जे प्रकृती इत्यादी पदार्थांमध्ये व्याप्त असलेल्या सर्वांतर्यामी ब्रह्माला उत्तम प्रकारे जाणून इतरांनाही जाणवून देतात. ॥ २ ॥