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दे॒वानां॑ दू॒तः पु॑रु॒ध प्रसू॒तोऽना॑गान्नो वोचतु स॒र्वता॑ता। शृ॒णोतु॑ नः पृथि॒वी द्यौरु॒तापः॒ सूर्यो॒ नक्ष॑त्रैरु॒र्व१॒॑न्तरि॑क्षम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

devānāṁ dūtaḥ purudha prasūto nāgān no vocatu sarvatātā | śṛṇotu naḥ pṛthivī dyaur utāpaḥ sūryo nakṣatrair urv antarikṣam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वाना॑म्। दू॒तः। पु॒रु॒ध। प्रऽसू॑तः। अना॑गान्। नः॒। वो॒च॒तु॒। स॒र्वऽता॑ता। शृ॒णोतु॑। नः॒। पृ॒थि॒वी। द्यौः। उ॒त। आपः॑। सूर्यः॑। नक्ष॑त्रैः। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:54» मन्त्र:19 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:27» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:19


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुरुध) बहुतों को धारण करनेवाले (देवानाम्) विद्वानों के (दूतः) सत्य और असत्य समाचार के देनेवाले (प्रसूतः) उत्पन्न आप (सर्वताता) सबको ही (अनागान्) अपराध से रहित (नः) हम लोगों को भूमि आदि की विद्याओं का (वोचतु) उपदेश दीजिये और (नक्षत्रैः) कारणरूप से नहीं नाश होनेवालों के साथ (उरु) व्यापक (अन्तरिक्षम्) आकाश के सदृश नहीं हिलना (सूर्य्यः) सूर्य्य के समान विद्या का प्रकाश (पृथिवी) भूमि के सदृश क्षमा और (द्यौः) बिजुली के सदृश विद्या (उत) और (आपः) जलों के सदृश शान्ति (नः) हम लोगों को प्राप्त हो और हम लोगों के वचनों को (शृणोतु) सुनो ॥१९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। धर्म्मसभा के अधिकृत लोगों के आधीन में वर्त्तमान उपदेश देनेवाले सबको सत्य और असत्य का उपदेश देकर धर्मात्मा करें और उनके प्रश्नों को सुनके समाधान करें और पृथिवी आदिकों के समीप से क्षमा आदि गुणों का ग्रहण करके अन्यों को ग्रहण करा पाखण्ड का नाश और धर्म को प्राप्त कराके सबको श्रेष्ठ करें ॥१९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे पुरुध देवानां दूतः प्रसूतो भवान्त्सर्वताता नागान्नः पृथिव्यादिविद्या वोचतु। नक्षत्रैस्सहोर्वन्तरिक्षं सूर्य्यः पृथिवी द्यौरुतापो नः प्राप्नोतु अस्माकं वचांसि शृणोतु ॥१९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (देवानाम्) विदुषाम् (दूतः) सत्याऽसत्यसमाचारदाता (पुरुध) यः पुरून् दधाति तत्सम्बुद्धौ (प्रसूतः) उत्पन्नः (अनागान्) अनपराधिनः (नः) अस्मान् (वोचतु) उपदिशतु (सर्वताता) सर्वानेव (शृणोतु) (नः) अस्मान् (पृथिवी) भूमिरिव क्षमा (द्यौः) विद्युदिव विद्या (उत) (आपः) जलानीव शान्तिः (सूर्य्यः) सवितेव विद्याप्रकाशः (नक्षत्रैः) कारणरूपेणाविनश्वरैः (उरु) व्यापकम् (अन्तरिक्षम्) आकाशमिवाऽक्षोभता ॥१९॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये धर्मसभाऽधिकृतानां प्रेष्या उपदेशका सर्वान्त्सत्याऽसत्ये उपदिश्य धर्मात्मनः सम्पादयन्तु तेषां प्रश्नाञ्छ्रुत्वा समादधतु पृथिव्यादीनां सकाशात् क्षमादिगुणान् गृहीत्वाऽन्यान् ग्राहयित्वा पाखण्डं विनाश्य धर्मं प्रापय्य सर्वाञ्छिष्टान् कुर्वन्तु ॥१९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. धर्मसभेच्या अधिकृत लोकांच्या अधीन असलेल्या उपदेशकांनी सर्वांना सत्य व असत्याचा उपदेश करून धर्मात्मा करावे व त्यांचे प्रश्न ऐकून समाधान करावे. पृथ्वीपासून क्षमा वगैरे गुण ग्रहण करावेत. इतरांनाही ग्रहण करण्यास लावावे. पाखंडाचा नाश करावा. धर्माचे पालन करावयास लावून सर्वांना श्रेष्ठ करावे. ॥ १९ ॥