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माध्य॑न्दिनस्य॒ सव॑नस्य धा॒नाः पु॑रो॒ळाश॑मिन्द्र कृष्वे॒ह चारु॑म्। प्र यत्स्तो॒ता ज॑रि॒ता तूर्ण्य॑र्थो वृषा॒यमा॑ण॒ उप॑ गी॒र्भिरीट्टे॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mādhyaṁdinasya savanasya dhānāḥ puroḻāśam indra kṛṣveha cārum | pra yat stotā jaritā tūrṇyartho vṛṣāyamāṇa upa gīrbhir īṭṭe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

माध्य॑न्दिनस्य। सव॑नस्य। धा॒नाः। पु॒रो॒ळास॑म्। इ॒न्द्र॒। कृ॒ष्व॒। इ॒ह। चारु॑म्। प्र। यत्। स्तो॒ता। ज॒रि॒ता। तूर्णि॑ऽअर्थः। वृ॒ष॒ऽयमा॑णः। उप॑। गीः॒ऽभिः। ईट्टे॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:52» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:17» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) प्रतापयुक्त ! आप (माध्यन्दिनस्य) मध्य दिन में होनेवाले (सवनस्य) कर्म विशेष के मध्य में जो (धानाः) भूँजे हुए अन्न और (चारुम्) भक्षण करने योग्य सुन्दर (पुरोडाशम्) अन्न विशेष का आप (इह) इस उत्तम कर्म में (कृष्व) संग्रह कीजिये और (यत्) जो (वृषायमाणः) बल को करनेवाला (तूर्ण्यर्थः) शीघ्र है प्रयोजन जिसका वह (जरिता) आपका सेवाकारी और (स्तोता) प्रशंसा करनेवाला (उप) समीप में (गीर्भिः) वाणियों से (प्र, उप) समीप में (ईट्टे) ऐश्वर्य्यवान् हो, वह आपके सत्कार करने योग्य होवे ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो राजा के जन ऋत्विजों के सदृश राज्य की वृद्धि करैं, उनको राजा सत्कार से प्रसन्न करे ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र ! त्वं माध्यन्दिनस्य सवनस्य मध्ये या धानाश्चारुं पुरोडाशं त्वमिह कृष्व। यद्यो वृषायमाणस्तूर्ण्यर्थो जरिता स्तोता गीर्भिः प्रोपेट्टे स तव सत्कर्त्तव्यो भवेत् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (माध्यन्दिनस्य) मध्यन्दिने भवस्य (सवनस्य) कर्मविशेषस्य (धानाः) भृष्टान्नानि (पुरोडाशम्) (इन्द्र) (कृष्व) कुरुष्व (इह) (चारुम्) भक्षणीयं सुन्दरम् (प्र) (यत्) यः (स्तोता) प्रशंसकः (जरिता) भवतः सेवकः (तूर्ण्यर्थः) तूर्णिः सद्योऽर्थो यस्य सः (वृषायमाणः) वृषं बलं कुर्वाणः (उप) (गीर्भिः) (ईट्टे) ऐश्वर्य्यवान् भवेत् ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे राजजना ऋत्विग्वद्राज्यं वर्धयेयुस्तान् राजा सत्कारेण हर्षयेत् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे राजजन ऋत्विजांप्रमाणे राज्याची वृद्धी करतात त्यांचा राजाने सत्कार करून प्रसन्न करावे. ॥ ५ ॥