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आ ते॑ सप॒र्यू ज॒वसे॑ युनज्मि॒ ययो॒रनु॑ प्र॒दिवः॑ श्रु॒ष्टिमावः॑। इ॒ह त्वा॑ धेयु॒र्हर॑यः सुशिप्र॒ पिबा॒ त्व१॒॑स्य सुषु॑तस्य॒ चारोः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā te saparyū javase yunajmi yayor anu pradivaḥ śruṣṭim āvaḥ | iha tvā dheyur harayaḥ suśipra pibā tv asya suṣutasya cāroḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। ते॒। स॒प॒र्यू इति॑। ज॒वसे॑। यु॒न॒ज्मि॒। ययोः॑। अनु॑। प्र॒ऽदिवः॑। श्रु॒ष्टिम्। आवः॑। इ॒ह। त्वा॒। धे॒युः॒। हर॑यः। सु॒ऽशि॒प्र॒। पिब॑। तु। अ॒स्य। सुऽसु॑तस्य। चारोः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:50» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब प्रीति के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुशिप्र) सुन्दर मुखवाले ! आप (ययोः) जिनके (अनु, प्रदिवः) उत्तम प्रकाशों को (श्रुष्टिम्) शीघ्र (आवः) रक्षा करैं वे (इह) इस संसार में (सपर्य्यू) सेवा करनेवाले (ते) आपके (जवसे) वेग के लिये (आ, युनज्मि) संयुक्त करता हूँ। और जो (हरयः) पुरुषार्थी मनुष्य (त्वा) आपको (धेयुः) धारण करें उनके साथ (तु) शीघ्र (अस्य) इस (सुषुतस्य) उत्तम प्रकार संस्कारयुक्त (चारोः) अतिश्रेष्ठ इस सोमलतारूप ओषधियों के अंश का (पिब) पान कीजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस संसार में जो लोग जिनके सेवक उन स्वामियों को चाहिये कि उन सेवकों का पोषण करें और सब लोग परस्पर प्रीति से सुख की उन्नति करें ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ प्रीतिविषयमाह।

अन्वय:

हे सुशिप्र ! त्वं ययोरनु प्रदिवः श्रुष्टिमावस्ताविह सपर्य्यू ते जवस आ युनज्मि। ये हरयस्त्वा धेयुस्तैः सह त्वस्य सुषुतस्य चारोः सोमस्यांशं पिब ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (ते) तव (सपर्य्यू) सेवकौ (जवसे) वेगाय (युनज्मि) (ययोः) (अनु) (प्रदिवः) प्रकृष्टप्रकाशान् (श्रुष्टिम्) शीघ्रम् (आवः) रक्षेः (इह) (त्वा) त्वाम् (धेयुः) दध्युः। अत्र छन्दस्युभयथेति सार्वधातुकमाश्रित्य सलोपः। (हरयः) पुरुषार्थिनो मनुष्याः (सुशिप्र) सुवदन (पिब)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (तु) (अस्य) (सुषुतस्य) सुष्ठु संस्कृतस्य (चारोः) अत्युत्तमस्य ॥२॥
भावार्थभाषाः - अस्मिन् संसारे ये येषां सेवकास्तैस्ते पोषणीयाः सर्वैः परस्परं प्रीत्या सुखोन्नतिः कार्य्या ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या संसारात जे ज्यांचे सेवक असतील त्यांचे पोषण त्यांच्या स्वामीने करावे व सर्वांनी परस्पर प्रीतीने सुखाची वाढ करावी. ॥ २ ॥