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ह॒र्यन्नु॒षस॑मर्चयः॒ सूर्यं॑ ह॒र्यन्न॑रोचयः। वि॒द्वांश्चि॑कि॒त्वान्ह॑र्यश्व वर्धस॒ इन्द्र॒ विश्वा॑ अ॒भि श्रियः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

haryann uṣasam arcayaḥ sūryaṁ haryann arocayaḥ | vidvām̐ś cikitvān haryaśva vardhasa indra viśvā abhi śriyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ह॒र्यन्। उ॒षस॑म्। अ॒र्च॒यः॒। सूर्य॑म्। ह॒र्यन्। अ॒रो॒च॒यः॒। वि॒द्वान्। चि॒कि॒त्वान्। ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒। व॒र्ध॒से॒। इन्द्र॑। विश्वा॑। अ॒भि। श्रियः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:44» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:8» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (हर्यन्) कामना करनेवाले ! (उषसम्) प्रातःकाल को सूर्य के सदृश सत्पुरुषों का आप (अर्चयः) सत्कार करिये और हे (हर्य्यन्) अनेक पदार्थों को प्राप्त होने वा प्राप्त करानेवाले (सूर्यम्) सूर्य को बिजुली जैसे वैसे न्याय का (अरोचयः) प्रकाश करो और हे (हर्यश्व) कामना करते हुए शीघ्र चलनेवाले अश्व वा अग्नि आदि पदार्थों से युक्त (इन्द्र) धन की इच्छा करनवाले जिससे (चिकित्वान्) ज्ञानवान् (विद्वान्) विद्वान् होते हुए (विश्वाः) संपूर्ण (अभि) सन्मुख वर्त्तमान (श्रियः) सुन्दर संपत्तियों को प्राप्त होने की इच्छा करते हो, इससे (वर्धसे) वृद्धि को प्राप्त होते हो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य प्रातःकाल के सदृश विद्याओं के प्रकाश में तत्पर और सूर्य के सदृश धर्माचरण की कामना करते हुए प्रयत्न से ऐश्वर्य्य की इच्छा करें, वे सब प्रकार लक्ष्मीयुक्त होकर निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे हर्य्यन्नुषसं सूर्य्य इव सत्पुरुषांस्त्वमर्चयः। हे हर्य्यन् सूर्य्यं विद्युदिव न्यायमरोचयः। हे हर्य्यश्वेन्द्र यतश्चिकित्वान्त्सन् विश्वा अभिश्रियः प्राप्तुमिच्छसि तस्माद्वर्धसे ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (हर्यन्) कामयमान (उषसम्) प्रत्यूषकालमिव सत्पुरुषान् (अर्चयः) सत्कुरु (सूर्य्यम्) सवितारमिव न्यायम् (हर्यन्) प्राप्नुवन् प्रापयन् (अरोचयः) रोचय (विद्वान्) (चिकित्वान्) ज्ञानवान् (हर्य्यश्व) हर्याः कामयमाना अश्वा आशुगामिनोऽग्न्यादयस्तुरङ्गा वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (वर्धसे) (इन्द्र) धनमिच्छुक (विश्वाः) सर्वाः (अभि) आभिमुख्ये (श्रियः) शोभाः सम्पत्तयः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या उषर्वद्विद्याप्रकाशाभिमुखाः सूर्यवद्धर्माचरणं कामयमानाः सन्तः प्रयत्नेनैश्वर्य्यमिच्छेयुस्ते सर्वथा श्रीमन्तो भूत्वा सततं वर्धन्ते ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे प्रातःकाळाप्रमाणे विद्येमध्ये तत्पर व सूर्याप्रमाणे धर्माचरणाची कामना बाळगतात व प्रयत्नपूर्वक ऐश्वर्याची इच्छा करतात ती सर्व प्रकारे श्रीमंत बनून सतत वर्धित होतात. ॥ २ ॥