अ॒र्वा॒वतो॑ न॒ आ ग॑हि परा॒वत॑श्च वृत्रहन्। इ॒मा जु॑षस्व नो॒ गिरः॑॥
arvāvato na ā gahi parāvataś ca vṛtrahan | imā juṣasva no giraḥ ||
अ॒र्वा॒ऽवतः॑। नः॒। आ। ग॒हि॒। प॒रा॒ऽवतः॑। च॒। वृ॒त्र॒ह॒न्। इ॒माः। जु॒ष॒स्व॒। नः॒। गिरः॑॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह।
हे वृत्रहँस्त्वमर्वावतो नोऽस्मान् परावतश्चागहि च इमा गिरो जुषस्व ॥८॥