वांछित मन्त्र चुनें

सखा॑ ह॒ यत्र॒ सखि॑भि॒र्नव॑ग्वैरभि॒ज्ञ्वा सत्व॑भि॒र्गा अ॑नु॒ग्मन्। स॒त्यं तदिन्द्रो॑ द॒शभि॒र्दश॑ग्वैः॒ सूर्यं॑ विवेद॒ तम॑सि क्षि॒यन्त॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sakhā ha yatra sakhibhir navagvair abhijñv ā satvabhir gā anugman | satyaṁ tad indro daśabhir daśagvaiḥ sūryaṁ viveda tamasi kṣiyantam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सखा॑। ह॒। यत्र॑। सखि॑ऽभिः। नव॑ऽग्वैः। अ॒भि॒ऽज्ञु। आ। सत्व॑ऽभिः। गाः। अ॒नु॒ऽग्मन्। स॒त्यम्। तत्। इन्द्रः॑। द॒शऽभिः॑। दश॑ऽग्वैः। सूर्य॑म्। वि॒वे॒द॒। तम॑सि। क्षि॒यन्त॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:39» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:25» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:5


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यत्र) जिस स्थल में (नवग्वैः) नवीन गतियों और (सखिभिः) मित्रों के साथ (अभिज्ञु) सन्मुख जांघों से युक्त (सखा) मित्र (सत्त्वभिः) पदार्थों के साथ (ह) निश्चय (गाः) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणी वा भूमियों के (आ, अनुग्मन्) अनुकूल प्राप्त होता हुआ जो (सत्यम्) श्रेष्ठ व्यवहारों में उत्तम अर्थात् सच्चापन जैसे हो वैसे (दशग्वैः) दश प्रकार की गतियों से युक्त (दशभिः) दश प्रकार के पवनों के साथ (इन्द्रः) बिजुली (तमसि) रात्रि में (क्षियन्तम्) निवास करते अर्थात् अपना काम प्रकाश न करते हुए (सूर्यम्) सूर्य को (विवेद) प्राप्त होती है (तत्) उस को जो जानता है उसका अनुकरण सब लोग करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मित्र के तुल्य वर्त्तमान वायु से बिजुली नामक अग्नि अन्धकार में सूर्य के परिणाम को प्राप्त हो और सबको प्रकाशित कर आनन्द देती है, वैसे ही धार्मिक मित्रों के सहित मित्र विद्वान् शुद्धान्तःकरणता तथा विद्या से प्रकट होकर सबके आत्माओं का प्रकाश करके आनन्द देता है ॥५॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यत्र नवग्वैः सखिभिः सहाऽभिज्ञु सखा सत्त्वभिर्ह गा आनुग्मन् यत्सत्यं दशग्वैर्दशभिः सहेन्द्रो तमसि क्षियन्तं सूर्य्यं विवेद तद्विवेद तदनुकरणं सर्वे कुर्वन्तु ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सखा) (ह) खलु (यत्र) (सखिभिः) (नवग्वैः) नवीनगतिभिः (अभिज्ञु) आभिमुख्ये जानुनी यस्य सः (आ) समन्तात् (सत्त्वभिः) पदार्थैः सह (गाः) सुशिक्षिता वाचो भूमिर्वा (अनुग्मन्) अनुकूलं गच्छन् (सत्यम्) सत्सु साधु (तत्) तम् (इन्द्रः) विद्युत् (दशभिः) दशविधैर्वायुभिः (दशग्वैः) दशविधा गतयो येषान्तैः (सूर्य्यम्) (विवेद) विन्दति (तमसि) अन्धकारे रात्रौ (क्षियन्तम्) निवसन्तम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सखिवद्वर्त्तमानेन वायुना विद्युदाख्योऽग्निरन्धकारे सूर्य्यपरिणामं प्राप्य सर्वान् प्रकाश्याऽऽनन्दति तथैव धार्मिकैर्मित्रैः सहितो सुहृद्विद्वान् शुद्धान्तःकरणतया विद्यया च प्रकटीभूत्वा सर्वेषामात्मनः प्रकाश्याऽऽनन्दति ॥५॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा मित्राप्रमाणे वायूपासून विद्युत नामक अग्नी अंधकारात सूर्याला प्राप्त होऊन सर्वांना प्रकाशित करून आनंद देतो. तसेच धार्मिक मित्रांसह विद्वान मित्र शुद्ध अंतःकरणाने व विद्येने सर्वांच्या आत्म्यांना प्रकाशित करून आनंद देतो. ॥ ५ ॥