इन्द्रं॑ म॒तिर्हृ॒द आ व॒च्यमा॒नाच्छा॒ पतिं॒ स्तोम॑तष्टा जिगाति। या जागृ॑विर्वि॒दथे॑ श॒स्यमा॒नेन्द्र॒ यत्ते॒ जाय॑ते वि॒द्धि तस्य॑॥
indram matir hṛda ā vacyamānācchā patiṁ stomataṣṭā jigāti | yā jāgṛvir vidathe śasyamānendra yat te jāyate viddhi tasya ||
इन्द्र॑म्। म॒तिः। हृ॒दः। आ। व॒च्यमा॑ना। अच्छ॑। पति॑म्। स्तोम॑ऽतष्टा। जि॒गा॒ति॒। या। जागृ॑विः। वि॒दथे॑। श॒स्यमा॑ना। इन्द्र॑। यत्। ते॒। जाय॑ते। वि॒द्धि। तस्य॑॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब नव ऋचावाले तीसरे मण्डल में उनतालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् के विषय को कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ विद्वद्विषयमाह।
हे इन्द्र विद्वन् ! या वच्यमाना विदथे जागृविः शस्यमाना स्तोमतष्टा मतिर्हृद इन्द्रं पतिमच्छा जिगाति यद्या प्रज्ञा ते जायते तथा तस्य शुभगुणकर्मस्वभावान् विद्धि ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन, निन्दित लोकांचे निवारण, मैत्री, अज्ञानाचा त्याग, विद्येच्या प्राप्तीची इच्छा इत्यादी विषयांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.