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इन्द्रं॑ म॒तिर्हृ॒द आ व॒च्यमा॒नाच्छा॒ पतिं॒ स्तोम॑तष्टा जिगाति। या जागृ॑विर्वि॒दथे॑ श॒स्यमा॒नेन्द्र॒ यत्ते॒ जाय॑ते वि॒द्धि तस्य॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indram matir hṛda ā vacyamānācchā patiṁ stomataṣṭā jigāti | yā jāgṛvir vidathe śasyamānendra yat te jāyate viddhi tasya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑म्। म॒तिः। हृ॒दः। आ। व॒च्यमा॑ना। अच्छ॑। पति॑म्। स्तोम॑ऽतष्टा। जि॒गा॒ति॒। या। जागृ॑विः। वि॒दथे॑। श॒स्यमा॑ना। इन्द्र॑। यत्। ते॒। जाय॑ते। वि॒द्धि। तस्य॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:39» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:25» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब नव ऋचावाले तीसरे मण्डल में उनतालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् के विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्ययुक्त विद्वान् पुरुष ! (या) जो (वच्यमाना) कही गई (विदथे) विज्ञान में (जागृविः) जागनेवाली और विज्ञान में (शस्यमाना) स्तुति से युक्त हुई (स्तोमतष्टा) स्तुतियों से विस्तारयुक्त (मतिः) बुद्धि (हृदः) हृदय से (इन्द्रम्) अत्यन्त सुख देने (पतिम्) और पालनेवाले स्वामी की (अच्छ) उत्तम प्रकार (आ) सब ओर से (जिगाति) स्तुति करती हैं (यत्) जो बुद्धि (ते) आपकी (जायते) उत्पन्न होती है उस बुद्धि से (तस्य) उस पालनेवाले के उत्तम गुण कर्म और स्वभावों को (विद्धि) जानो ॥१॥
भावार्थभाषाः - जिनके हृदय में यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है, वे सब लोगों के गुण और दोषों को जान गुणों को ग्रहण दोषों का त्याग गुणों की प्रशंसा और दोषों की निन्दा करके उत्तम कर्मों को करें, ऐसा होने से वे इस संसार में प्रशंसायुक्त होवें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र विद्वन् ! या वच्यमाना विदथे जागृविः शस्यमाना स्तोमतष्टा मतिर्हृद इन्द्रं पतिमच्छा जिगाति यद्या प्रज्ञा ते जायते तथा तस्य शुभगुणकर्मस्वभावान् विद्धि ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रम्) परमसुखप्रदम् (मतिः) प्रज्ञा (हृदः) हृदयात् (आ) समन्तात् (वच्यमाना) उच्यमाना। अत्र वाच्छन्दसीति सम्प्रसारणाऽभावः। (अच्छ) सम्यक्। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (पतिम्) पालकं स्वामिनम् (स्तोमतष्टा) स्तोमैः स्तुतिभिस्तष्टा विस्तृता (जिगाति) स्तौति (या) (जागृविः) जागरूका (विदथे) विज्ञाने (शस्यमाना) स्तूयमाना (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (यत्) या (ते) तव (जायते) (विद्धि) (तस्य) ॥१॥
भावार्थभाषाः - येषां हृदये प्रमोत्पद्यते ते सर्वेषां गुणदोषान् विज्ञाय गुणान् गृहीत्वा दोषांश्च त्यक्त्वा गुणप्रशंसां दोषनिन्दां कृत्वोत्तमानि कर्माणि कुर्य्युस्सत्येवं तेऽत्र प्रशंसिताः स्युः ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन, निन्दित लोकांचे निवारण, मैत्री, अज्ञानाचा त्याग, विद्येच्या प्राप्तीची इच्छा इत्यादी विषयांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - ज्यांच्या हृदयात यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होते त्यांनी सर्व लोकांचे गुण व दोष जाणून गुणांना ग्रहण करून दोषांचा त्याग करून गुणांची प्रशंसा व दोषांची निंदा करून उत्तम कर्म करावे. असे करण्याने जगात त्यांची प्रशंसा होते. ॥ १ ॥