अ॒भि तष्टे॑व दीधया मनी॒षामत्यो॒ न वा॒जी सु॒धुरो॒ जिहा॑नः। अ॒भि प्रि॒याणि॒ मर्मृ॑श॒त्परा॑णि क॒वीँरि॑च्छामि सं॒दृशे॑ सुमे॒धाः॥
abhi taṣṭeva dīdhayā manīṣām atyo na vājī sudhuro jihānaḥ | abhi priyāṇi marmṛśat parāṇi kavīm̐r icchāmi saṁdṛśe sumedhāḥ ||
अ॒भि। तष्टा॑ऽइव। दी॒ध॒य॒। म॒नी॒षाम्। अत्यः॑। न। वा॒जी। सु॒ऽधुरः॑। जिहा॑नः। अ॒भि। प्रि॒याणि॑। मर्मृ॑शत्। परा॑णि। क॒वीन्। इ॒च्छा॒मि॒। स॒म्ऽदृशे॑। सु॒ऽमे॒धाः॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब दश ऋचावाले अड़तीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् के विषय को कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ विद्वद्विषयमाह।
हे विद्वन् ! यथाऽहं संदृशे कवीनभीच्छामि तथा सुमेधा जिहानः पराणि प्रियाण्यभिमर्मृशत्सन् सुधुरोऽत्यो वाजी न मनीषां तष्टेवाऽभिदीधय ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात विद्वान, कारागीर, सभा, राजा, प्रजा, सूर्य व भूमी इत्यादींच्या गुणांचे वर्णन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.