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इन्द्रं॑ वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे पुरुहू॒तमुप॑ ब्रुवे। भरे॑षु॒ वाज॑सातये॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indraṁ vṛtrāya hantave puruhūtam upa bruve | bhareṣu vājasātaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑म्। वृ॒त्राय॑। हन्त॑वे। पु॒रु॒ऽहू॒तम्। उप॑। ब्रु॒वे॒। भरे॑षु। वाज॑ऽसातये॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:37» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:21» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सेना में वर्त्तमान वीर पुरुषो ! जिस प्रकार सेना का अधीश मैं (वृत्राय) न्याय के आवरण करनेवाले शत्रु के (हन्तवे) नाश के लिये तथा (भरेषु) संग्रामों में (वाजसातये) धन आदि को बाँटने के लिये (पुरुहूतम्) बहुतों से पुकारे वा प्रशंसा किये गये (इन्द्रम्) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के देनेवाले राजा को (उप) समीप में (ब्रुवे) कहता हूँ वैसे आप लोग भी इसके समीप कहो ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब संग्राम प्रवृत्त होवै तो योधाओं के प्रति अध्यक्ष पुरुषों को चाहिये कि जिस प्रकार विजय हो वैसा उपदेश दें और योद्धा लोग अधिष्ठाता पुरुषों की आज्ञा में सब प्रकार वर्त्तमान होवैं, ऐसा करने से कैसे पराजय हो ? ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजविषयमाह।

अन्वय:

हे सेनास्थवीरा यथा सेनाधीशोऽहं वृत्राय हन्तवे भरेषु वाजसातये पुरुहूतमिन्द्रमुपब्रुवे तथा यूयमप्येतमुपब्रुवन्तु ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यप्रदम् (वृत्राय) मेघ इव न्यायावरकाय शत्रवे (हन्तवे) हन्तुम् (पुरुहूतम्) बहुभिराहूतं प्रशंसितं वा (उप) समीपे (ब्रुवे) कथयामि (भरेषु) सङ्ग्रामेषु (वाजसातये) धनादिसंविभागाय ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा सङ्ग्रामः प्रवर्त्तेत तदा योधॄन्प्रत्यध्यक्षैर्यथा विजयः स्यात्तथोपदेष्टव्यम्। योद्धारश्चाधिष्ठातॄणामाज्ञायां सर्वथा वर्त्तेरन्नेवं सति कुतः पराजयः ?॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजाने युद्धात योद्ध्यांना विजय प्राप्त होईल असा उपदेश करावा व योद्ध्यांनी राजाची आज्ञा पालन करावी. असे केल्यामुळे पराभव कसा होईल? ॥ ५ ॥