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अ॒र्वा॒चीनं॒ सु ते॒ मन॑ उ॒त चक्षुः॑ शतक्रतो। इन्द्र॑ कृ॒ण्वन्तु॑ वा॒घतः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

arvācīnaṁ su te mana uta cakṣuḥ śatakrato | indra kṛṇvantu vāghataḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒र्वा॒चीन॑म्। सु। ते॒। मनः॑। उ॒त। चक्षुः॑। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। इन्द्र॑। कृ॒ण्वन्तु॑। वा॒घतः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:37» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:21» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शतक्रतो) असंख्य बुद्धियुक्त (इन्द्र) दुष्ट पुरुषों के नाश करनेवाले ! जैसे (वाघतः) वाणी से दोषों के नाश करनेवाले बुद्धिमान् लोग (ते) आपके (अर्वाचीनम्) इस समय उत्तम शिक्षायुक्त (मनः) अन्तःकरण (उत) और (चक्षुः) नेत्र आदि इन्द्रिय को उत्तम गुणों से युक्त (सु, कृण्वन्तु) सिद्ध करैं वैसे ही आप आचरण करैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजा आदि जन सदा यथार्थवक्ता पुरुष की शिक्षा में वर्त्तमान होके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे शतक्रतो इन्द्र ! यथा वाघतस्तेऽर्वाचीनं मन उत चक्षुश्च शुभगुणान्वितं सुकृण्वन्तु तथैव भवानाचरतु ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अर्वाचीनम्) इदानीं सुशिक्षितम् (सु) (ते) तव (मनः) अन्तःकरणम् (उत) (चक्षुः) चक्षुरादीन्द्रियम् (शतक्रतो) शतमसङ्ख्यः क्रतुः प्रज्ञा यस्य तत्सम्बुद्धौ (इन्द्र) दुष्टानां विदारक (कृण्वन्तु) निष्पादयन्तु (वाघतः) ये वाचा दोषान् घ्नन्ति ते मेधाविनः। वाघत इति मेधाविना०। निघं० ३। १५। ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजादयो जनाः सदाऽऽप्तशिक्षायां वर्त्तित्वा धर्मार्थकाममोक्षान् साध्नुवन्तु ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजा वगैरेनी सदैव यथार्थवक्ता पुरुषाकडून शिक्षण घ्यावे व धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सिद्ध करावा. ॥ २ ॥