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ह्र॒दाइ॑व कु॒क्षयः॑ सोम॒धानाः॒ समीं॑ विव्याच॒ सव॑ना पु॒रूणि॑। अन्ना॒ यदिन्द्रः॑ प्रथ॒मा व्याश॑ वृ॒त्रं ज॑घ॒न्वाँ अ॑वृणीत॒ सोम॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hradā iva kukṣayaḥ somadhānāḥ sam ī vivyāca savanā purūṇi | annā yad indraḥ prathamā vy āśa vṛtraṁ jaghanvām̐ avṛṇīta somam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ह्र॒दाःऽइ॑व। कु॒क्षयः॑। सो॒म॒ऽधानाः॑। सम्। ई॒म् इति॑। वि॒व्या॒च॒। सव॑ना। पु॒रूणि॑। अन्ना॑। यत्। इन्द्रः॑। प्र॒थ॒मा। वि। आश॑। वृ॒त्रम्। ज॒घ॒न्वान्। अ॒वृ॒णी॒त॒। सोम॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:36» मन्त्र:8 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:20» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - जिस पुरुष के (कुक्षयः) दोनों ओर के उदर के अवयव (सोमधानाः) सोमरूप ओषधियों के बीजों से युक्त (ह्रदाइव) गम्भीर जलाशयों के सदृश वर्त्तमान हैं (यत्) तथा) जो (पुरूणि) बहुत (सवना) ओषधियों के उत्पन्न रसों से युक्त (प्रथमा) प्रसिद्ध (अन्ना) अन्न और (ईम्) जल को (सम्, विव्याच) छलता है वह (इन्द्रः) सूर्य्य के समान महाप्रकाशमान (वृत्रम्) मेघ के (जघन्वान्) नाश करनेवाले सूर्य्य के समान (सोमम्) ओषधियों के समूह का (अवृणीत) स्वीकार करता तथा स्वादुयुक्त पदार्थों का (वि, आश) स्वीकार करता है ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पुरुष गम्भीर अभिप्राय से युक्त सूर्य्य के सदृश प्रतापी ऐश्वर्य्य के धारण करनेवाले अपने और दूसरों के दोषों को नाश करके एश्वर्य्य का स्वीकार करते हैं, वे ही प्रसन्नात्मा होते हैं ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यस्य कुक्षयः सोमधाना हृदा इव सन्ति यद्यः पुरूणि सवना प्रथमा अन्ना ईं संविव्याच स इन्द्रो वृत्रं जघन्वान् सूर्य्य इव सोममवृणीत स्वादिष्ठान्भोगान्व्याश ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ह्रदाइव) यथा गम्भीरा जलाशयास्तथा (कुक्षयः) उभयत उदरावयवाः (सोमधानाः) सोमानां धानाः येषु ते (सम्) (ईम्) जलम् (विव्याच) छलयति (सवना) सुन्वन्ति येषु तानि (पुरूणि) बहूनि (अन्ना) अन्नानि (यत्) यः (इन्द्रः) सूर्य्य इव महाप्रकाशः (प्रथमा) प्रख्यातानि (वि) (आश) अश्नाति (वृत्रम्) मेघम् (जघन्वान्) हतवान् (अवृणीत) स्वीकरोति सोमम् ओषधिगणम् ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये गम्भीराशयाः सूर्य्यवत्प्रतापवन्तो धृतैश्वर्य्याः स्वपरदोषान् हत्वा गुणैरैश्वर्य्यं स्वीकुर्वन्ति त एव प्रसन्नात्मानो भवन्ति ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे पुरुष गंभीर, सूर्याप्रमाणे प्रतापी, ऐश्वर्यधारक स्वपरदोषनाशक, गुणरूपी ऐश्वर्याचा स्वीकार करतात तेच प्रसन्न आत्मे असतात. ॥ ८ ॥