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याँ आभ॑जो म॒रुत॑ इन्द्र॒ सोमे॒ ये त्वामव॑र्ध॒न्नभ॑वन्ग॒णस्ते॑। तेभि॑रे॒तं स॒जोषा॑ वावशा॒नो॒३॒॑ग्नेः पि॑ब जि॒ह्वया॒ सोम॑मिन्द्र॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yām̐ ābhajo maruta indra some ye tvām avardhann abhavan gaṇas te | tebhir etaṁ sajoṣā vāvaśāno gneḥ piba jihvayā somam indra ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यान्। आ। अभ॑जः। म॒रुतः॑। इ॒न्द्र॒। सोमे॑। ये। त्वाम्। अव॑र्धन्। अभ॑वन्। ग॒णः। ते॒। तेभिः॑। ए॒तम्। स॒ऽजोषाः॑। वा॒व॒शा॒नः। अ॒ग्नेः। पि॒ब॒। जि॒ह्वया॑। सोम॑म्। इ॒न्द्र॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:35» मन्त्र:9 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:18» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य के देनेवाले ! आप ऐश्वर्य्य में (यान्) जिन विद्वानों को (मरुतः) प्राणों के सदृश प्रिय और श्रेष्ठ जान के (आ, अभजः) सेवन करो (ये) जो लोग (सोमे) ऐश्वर्य्य में (त्वाम्) आपकी (अवर्धन्) वृद्धि करैं जो (ते) आपका (गणः) समूह उसको प्राप्त होके आनन्दित (अभवन्) होवें (तेभिः) उन लोगों के साथ हे (इन्द्र) दुःख के नाश करनेवाले ! (सजोषाः) तुल्य प्रीति के सेवनकर्त्ता (वावशानः) अत्यन्त कामना करते हुए आप (अग्नेः) अग्नि की (जिह्वया) ज्वाला के सदृश वर्त्तमान गुण से (एतम्) इस (सोमम्) सोम रस का (पिब) पान करो ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो प्राण के सदृश प्रिय और श्रेष्ठ विद्वान् जनों की मनुष्य लोग सेवा करैं तो इन मनुष्यों की वे विद्वान् लोग सब प्रकार वृद्धि करैं और जैसे अग्नि ज्वाला से सम्पूर्ण रसों का पान करता है, वैसे ही तीक्ष्ण क्षुधा के सहित वर्त्तमान पुरुष अन्न का भोजन करै और पान करने योग्य वस्तु का पान करै ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र ! त्वं सोमे यान् विदुषो मरुत इवाभजो ये सोमे त्वामवर्धन् यस्ते गणस्तं प्राप्याऽऽनन्दिता अभवँस्तेभिः सह हे इन्द्र सजोषा वावशानः सन्नग्नेर्जिह्वयैतं सोमं पिब ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यान्) विदुषः (आ) (अभजः) सेवेथाः (मरुतः) प्राणानिव प्रियानाप्तान् (इन्द्र) सकलैश्वर्यप्रद (सोमे) ऐश्वर्य्ये (ये) (त्वाम्) (अवर्धन्) वर्धयेयुः (अभवन्) भवेयुः (गणः) समूहः (ते) तव (तेभिः) तैस्सह (एतम्) (सजोषाः) समानप्रीतिसेवी (वावशानः) भृशं कामयमानः (अग्नेः) पावकस्य (पिब) (जिह्वया) ज्वालेव वर्त्तमानया (सोमम्) रसम् (इन्द्र) दुःखविदारक ॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि प्राणानिव प्रियानाप्तान् विदुषो मनुष्याः सेवेरन् तर्ह्येतांस्ते सर्वतो वर्धयेयुर्यथाऽग्निर्ज्वालया सर्वान् रसान् पिबति तथैव तीव्रक्षुधा सह वर्त्तमानोऽन्नं भुञ्जीत पेयं पिबेच्च ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. प्राणासारख्या प्रिय व श्रेष्ठ विद्वान लोकांची माणसांनी सेवा केली तर त्या माणसांची ते विद्वान लोक सर्व प्रकारे वृद्धी करतात व जसा अग्नी संपूर्ण रसांचे पान करतो तसे तीव्र क्षुधा असलेल्या पुरुषांनी अन्नाचे सेवन करावे व पान करण्यायोग्य वस्तूचे पान करावे. ॥ ९ ॥