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ब्रह्म॑णा ते ब्रह्म॒युजा॑ युनज्मि॒ हरी॒ सखा॑या सध॒माद॑ आ॒शू। स्थि॒रं रथं॑ सु॒खमि॑न्द्राधि॒तिष्ठ॑न्प्रजा॒नन्वि॒द्वाँ उप॑ याहि॒ सोम॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

brahmaṇā te brahmayujā yunajmi harī sakhāyā sadhamāda āśū | sthiraṁ rathaṁ sukham indrādhitiṣṭhan prajānan vidvām̐ upa yāhi somam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ब्रह्म॑णा। ते॒। ब्र॒ह्म॒ऽयुजा॑। यु॒न॒ज्मि॒। हरी॒ इति॑। सखा॑या। स॒ध॒ऽमादे॑। आ॒शू इति॑। स्थि॒रम्। रथ॑म्। सु॒खम्। इ॒न्द्र॒। अ॒धि॒ऽतिष्ठ॑न्। प्र॒ऽजा॒नन्। वि॒द्वान्। उप॑। या॒हि॒। सोम॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:35» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:17» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) शिल्पविद्यारूप ऐश्वर्य्य से युक्त पुरुष ! मैं (ते) आपके जिस वाहन में (ब्रह्मणा) अन्न आदि के सहित विद्यमान (ब्रह्मयुजा) धन के संग्रह कराने और (आशू) शीघ्र ले चलनेवाले (हरी) जल और अग्नि को (सखाया) मित्रों के तुल्य (सधमादे) बरोबर के स्थान में (युनज्मि) संयुक्त करता हूँ उस (सुखम्) आकाशमार्गियों के लिये हित करनेवाले (स्थिरम्) दृढ़ (रथम्) वाहन (अधि, तिष्ठन्) पर स्थिर हो तो (विद्वान्) इस विद्या को अङ्ग और उपाङ्गों के सहित जानते और (प्रजानन्) उत्तम प्रकार ज्ञान को प्राप्त होते हुए आप (सोमम्) ऐश्वर्य्य को (उप, याहि) प्राप्त हूजिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग अग्नि और जल आदि पदार्थों से चलाये गये वाहन पर बैठ अच्छे प्रकार विद्या द्वारा उसको चलाते हुए देशदेशान्तरों में जाय आय और ऐश्वर्य्य को पाय मित्रों का सत्कार करैं, वे ही विद्या और धर्म की वृद्धि कर सकैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र अहं ते तव यस्मिन्याने ब्रह्मणा सह वर्त्तमानौ ब्रह्मयुजा आशू हरी सखाया इव सधमादे युनज्मि तं सुखं स्थिरं रथमधितिष्ठन् विद्वान् सन्नेतद्विद्यां प्रजानन् सोममुपयाहि ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ब्रह्मणा) अन्नादिना (ते) तव (ब्रह्मयुजा) यौ ब्रह्म धनं योजयतस्तौ (युनज्मि) (हरी) जलाग्नी (सखाया) सुहृदाविव (सधमादे) समानस्थाने (आशू) शीघ्रं गमयितारौ (स्थिरम्) ध्रुवम् (रथम्) यानम् (सुखम्) सुहितं खेभ्यस्तम् (इन्द्र) शिल्पविद्यैश्वर्य्ययुक्त (अधितिष्ठन्) उपरि स्थितः सन् (प्रजानन्) प्रकृष्टतया बुद्ध्यमानः (विद्वान्) साङ्गोपाङ्गामेतद्विद्यां विदन् (उप) (याहि) (सोमम्) ऐश्वर्य्यम् ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येऽग्निजलादिप्रयुक्ते याने स्थित्वा यथावद्विद्यया प्रचालयन्तो देशान्तरं गत्वागत्यैश्वर्य्यं प्राप्य सखीन्सत्कुर्युस्त एव विद्याधर्मावुन्नेतुं शक्नुयुः ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक अग्नी, जल इत्यादी पदार्थांनी चालविलेल्या वाहनात बसून विद्येद्वारे चांगल्या प्रकारे ते चालवितात, देशदेशान्तरी जातात-येतात व ऐश्वर्य प्राप्त करतात आणि मित्रांचा सत्कार करतात तेच विद्या व धर्माची वृद्धी करू शकतात. ॥ ४ ॥