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इन्द्रः॑ स्व॒र्षा ज॒नय॒न्नहा॑नि जि॒गायो॒शिग्भिः॒ पृत॑ना अभि॒ष्टिः। प्रारो॑चय॒न्मन॑वे के॒तुमह्ना॒मवि॑न्द॒ज्ज्योति॑र्बृह॒ते रणा॑य॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indraḥ svarṣā janayann ahāni jigāyośigbhiḥ pṛtanā abhiṣṭiḥ | prārocayan manave ketum ahnām avindaj jyotir bṛhate raṇāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रः॑। स्वः॒ऽसा। ज॒नय॑न्। अहा॑नि। जि॒गाय॑। उ॒शिक्ऽभिः॑। पृत॑नाः। अ॒भि॒ष्टिः। प्र। अ॒रो॒च॒य॒त्। मन॑वे। के॒तुम्। अह्ना॑म्। अवि॑न्दत्। ज्योतिः॑। बृ॒ह॒ते। रणा॑य॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:34» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:15» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (स्वर्षाः) सुख के विभाग करने (अभिष्टिः) सन्मुख मेल करनेवाले (इन्द्रः) सूर्य्य के सदृश तेजस्वी (पृतनाः) वीर पुरुषों की सेनाओं और (अहानि) दिनों को सूर्य्य के सदृश (जनयन्) प्रकट करनेवाला पुरुष (उशिग्भिः) युद्ध की इच्छा रखते हुए वीरों के साथ शत्रुओं को (जिगाय) जीते (बृहते) बड़े (रणाय) संग्राम के लिये (अह्नाम्) दिनों के (ज्योतिः) युद्ध की विद्या के प्रकाश को (मनवे) और मनन करनेवाले मनुष्य के लिये (केतुम्) बुद्धि को (अविन्दत्) प्राप्त होवे और संग्राम का (प्र) (अरोचयत्) उत्तम प्रकार प्रकाश करै, वही पुरुष विजयरूप आभूषण से शोभित होवे ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा लोग सम्पूर्ण जनों से अधिक प्रयत्न युद्धविद्या में करैं, वे उत्तम प्रकार प्रसन्नतायुक्त जो कि युद्ध के लिये पारितोषिक आदि से रुचि दिखाये गये वीर लोग उनके साथ शत्रुओं को जीतकर सूर्य्य के सदृश विजय के प्रकाश को प्रकट करैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यः स्वर्षा अभिष्टिरिन्द्रः पृतना अहानि सूर्य्य इव जनयन्नुशिग्भिः शत्रून् जिगाय बृहते रणायाऽह्नां ज्योतिरिव मनवे केतुमविन्दत्सङ्ग्रामं प्रारोचयत्स एव विजयविभूषितः स्यात् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) सूर्य इव तेजस्वी (स्वर्षाः) यः स्वः सुखं सनति विभजति सः (जनयन्) प्रकटयन् (अहानि) दिनानि (जिगाय) जयेत् (उशिग्भिः) कामयमानैर्वीरैः (पृतनाः) वीरसेनाः (अभिष्टिः) अभिमुखा इष्टिः सङ्गतिर्यस्य सः (प्र, अरोचयत्) रोचयेत् (मनवे) मननशीलाय मनुष्याय (केतुम्) प्रज्ञाम् (अह्नाम्) दिनानाम् (अविन्दत्) विन्देत् प्राप्नुयात् (ज्योतिः) युद्धविद्याप्रकाशम् (बृहते) महते (रणाय) सङ्ग्रामाय ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजानः सर्वेभ्योऽधिकं प्रयत्नं युद्धविद्यायां कुर्युस्ते सुहर्षितैर्युद्धाय रुचिं प्रदर्शितैर्वीरैः सह शत्रून् जित्वा सूर्य्यस्येव विजयप्रकाशं प्रथयेरन् ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजे युद्धविद्येत सर्व लोकांपेक्षा जास्त प्रयत्न करतात त्यांनी प्रसन्नतापूर्वक व्यवहार करणाऱ्या व युद्धात रुची असणाऱ्या वीर पुरुषांसह शत्रूंना जिंकून सूर्यप्रकाशाप्रमाणे विजय प्राप्त करावा. ॥ ४ ॥