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इन्द्रः॑ पू॒र्भिदाति॑र॒द्दास॑म॒र्कैर्वि॒दद्व॑सु॒र्दय॑मानो॒ वि शत्रू॑न्। ब्रह्म॑जूतस्त॒न्वा॑ वावृधा॒नो भूरि॑दात्र॒ आपृ॑ण॒द्रोद॑सी उ॒भे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indraḥ pūrbhid ātirad dāsam arkair vidadvasur dayamāno vi śatrūn | brahmajūtas tanvā vāvṛdhāno bhūridātra āpṛṇad rodasī ubhe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रः॑। पूः॒ऽभित्। आ। अ॒ति॒र॒त्। दास॑म्। अ॒र्कैः। वि॒दत्ऽव॑सुः। दय॑मानः। वि। शत्रू॑न्। ब्रह्म॑ऽजूतः। त॒न्वा॑। व॒वृ॒धा॒नः। भूरि॑ऽदात्रः। आ। अ॒पृ॒ण॒त्। रोद॑सी॒ इति॑। उ॒भे इति॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:34» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:15» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ग्यारह ऋचावाले ३४ चौतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से सूर्य के गुणों का उपदेश करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजपुरुष ! जैसे सूर्य्य (उभे) दोनों (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी के तुल्य विद्या और विनय को (आ) (अपृणत्) पूर्ण करै वैसे (विदद्वसुः) धनों से संपन्न (ब्रह्मजूतः) धनों को प्राप्त (दासम्) देने योग्य पर (दयमानः) कृपालु (तन्वा) शरीर से (वावृधानः) वृद्धि को प्राप्त होते हुए (भूरिदात्रः) अनेक प्रकार के दान देने (पूर्भित्) शत्रुओं के नगरों को तोड़ने और (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के रखनेवाले आप (अर्कैः) आदर करने योग्य विचारों से (शत्रून्) शत्रुओं का (वि, आ, अतिरत्) उल्लङ्घन करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य अपने किरणों से भूमि और अन्तरिक्ष को पूर्ण करके अन्धकार को जीतता है, वैसे ही श्रेष्ठ और ऐक्यमत युक्त विचारों से शत्रुओं को जीतै तथा सब काल में शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाये और श्रेष्ठ पुरुषों को सत्कार करके दुष्ट जनों का अपमान करैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सूर्यगुणा उपदिश्यन्ते।

अन्वय:

हे राजपुरुष ! यथा सूर्य उभे रोदसी आपृणत्तथा विदद्वसुर्ब्रह्मजूतो दासं दयमानस्तन्वा वावृधानो भूरिदात्रः पूर्भिदिन्द्रो भवानर्कैः शत्रून् व्यातिरत् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (पूर्भित्) पुरां भेत्ता (आ) (अतिरत्) उल्लङ्घयतु (दासम्) दातुं योग्यम् (अर्कैः) अर्चनीयैर्मन्त्रैर्विचारैः (विदद्वसुः) विदन्ति वसूनि येन सः (दयमानः) कृपालुः सन् (वि) (शत्रून्) (ब्रह्मजूतः) धनानि प्राप्तः (तन्वा) शरीरेण (वावृधानः) वर्धमानः (भूरिदात्रः) भूरि बहुविधं दात्रं दानं यस्य सः (आ) (अपृणत्) प्रपूरयेत् (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव विद्याविनयौ (उभे) ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यः स्वकीयैः किरणैर्भूम्यन्तरिक्षे पूर्त्वाऽन्धकारं जयति तथैवाप्तैः सह कृतैर्विचारैः शत्रून् जयेत्सर्वदा शरीरात्मबलं वर्धयित्वा श्रेष्ठान् सत्कृत्य दुष्टान् पराभवेत् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात सूर्य, विद्युत, वीर, राज्य, राजाची सेना व प्रजेचे गुणवर्णन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य आपल्या किरणांनी भूमी व अंतरिक्षातील अंधकार नष्ट करतो, तसेच श्रेष्ठ व योग्य विचाराने शत्रूंना जिंकावे. सदैव आत्मा व शरीराचे बल वाढवून श्रेष्ठ पुरुषांचा सत्कार करून दुष्ट लोकांचा पराभव करावा. ॥ १ ॥