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रम॑ध्वं मे॒ वच॑से सो॒म्याय॒ ऋता॑वरी॒रुप॑ मुहू॒र्तमेवैः॑। प्र सिन्धु॒मच्छा॑ बृह॒ती म॑नी॒षाव॒स्युर॑ह्वे कुशि॒कस्य॑ सू॒नुः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ramadhvam me vacase somyāya ṛtāvarīr upa muhūrtam evaiḥ | pra sindhum acchā bṛhatī manīṣāvasyur ahve kuśikasya sūnuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

रम॑ध्वम्। मे॒। वच॑से। सो॒म्याय॑। ऋत॑ऽवरीः। उप॑। मु॒हू॒र्तम्। एवैः॑। प्र। सिन्धु॑म्। अच्छ॑। बृ॒ह॒ती। म॒नी॒षा। अ॒व॒स्युः। अ॒ह्वे॒। कु॒शि॒कस्य॑। सू॒नुः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:33» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:12» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! आप लोग जैसे (ऋतावरीः) बहुत जलों से युक्त नदी (सिन्धुम्) समुद्र को (उप) प्राप्त और स्थिर होती हैं वैसे ही (एवैः) प्राप्त करानेवाले गुणों से (मुहूर्त्तम्) दो-दो घड़ी (मे) मेरे (सोम्याय) चन्द्रमा के तुल्य शान्ति गुणयुक्त (वचसे) वचन के लिये (रमध्वम्) क्रीड़ा करो वैसे ही (कुशिकस्य) विद्या के निचोड़ को प्राप्त हुए सज्जन के (सूनुः) पुत्र के सदृश वर्त्तमान (अवस्युः) अपने को रक्षा चाहनेवाला मैं जो (बृहती) बड़ी (मनीषा) बुद्धि उसकी (अच्छ) उत्तम प्रकार (प्र) (अह्वे) प्रशंसा करता हूँ ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे नदियाँ समुद्र के सम्मुख जाती हैं, वैसे ही मनुष्य लोग विद्या और धर्मसम्बन्धी व्यवहार को प्राप्त हों, जिससे सुखपूर्वक समय व्यतीत होवै ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यूयं यथा ऋतावरीः सिन्धुमुपगच्छन्ति स्थिरा भवन्ति तथैवैवैर्मुहूर्त्तं मे सोम्याय वचसे रमध्वं तथैव कुशिकस्य सूनुरवस्युरहं यो बृहती मनीषा तामच्छ प्राह्वे ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (रमध्वम्) क्रीडध्वम् (मे) मम (वचसे) वचनाय (सोम्याय) सोम इव शान्तिगुणयुक्ताय (ऋतावरीः) ऋतं पुष्कलमुदकं विद्यते यासु ताः (उप) (मुहूर्त्तम्) कालावयवम् (एवैः) प्रापकैर्गुणैः (प्र) (सिन्धुम्) समुद्रम् (अच्छ) सम्यक्। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (बृहती) महती (मनीषा) प्रज्ञा (अवस्युः) आत्मनोऽव इच्छुः (अह्वे) प्रशंसामि (कुशिकस्य) विद्यानिष्कर्षप्राप्तस्य। अत्र वर्णव्यत्ययेन मूर्द्धन्यस्य तालव्यः (सूनुः) अपत्यमिव वर्त्तमानः ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा नद्यः समुद्राऽभिमुखं गच्छन्ति तथैव मनुष्या विद्याधर्म्यव्यवहारं प्रत्यभिगच्छन्तु येन सुखेन समयो गच्छेत् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशा नद्या समुद्राला मिळतात तसाच व्यवहार माणसांनी विद्या व धर्मासंबंधी करावा, ज्यामुळे सुखपूर्वक काळ जावा. ॥ ५ ॥