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य॒ज्ञो हि त॑ इन्द्र॒ वर्ध॑नो॒ भूदु॒त प्रि॒यः सु॒तसो॑मो मि॒येधः॑। य॒ज्ञेन॑ य॒ज्ञम॑व य॒ज्ञियः॒ सन्य॒ज्ञस्ते॒ वज्र॑महि॒हत्य॑ आवत्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yajño hi ta indra vardhano bhūd uta priyaḥ sutasomo miyedhaḥ | yajñena yajñam ava yajñiyaḥ san yajñas te vajram ahihatya āvat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य॒ज्ञः। हि। ते॒। इ॒न्द्र॒। वर्ध॑नः। भूत्। उ॒त। प्रि॒यः। सु॒तऽसो॑मः। मि॒येधः॑। य॒ज्ञेन॑। य॒ज्ञम्। अ॒व॒। य॒ज्ञियः॑। सन्। य॒ज्ञः। ते॒। वज्र॑म्। अ॒हि॒ऽहत्ये॑। आ॒व॒त्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:32» मन्त्र:12 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:11» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के प्राप्त करानेवाले ! (हि) जिससे कि (ते) आपका (अहिहत्ये) वर्षा का निमित्त (यज्ञः) पदार्थों का संयोग करनारूप व्यवहार (वर्धनः) उन्नतिकर्त्ता (सुतसोमः) ऐश्वर्य्य की उत्पत्तिकर्त्ता (मियेधः) दुःख का नाशकर्त्ता (उत) और भी (प्रियः) प्रीति की उत्पत्ति करनेवाला (भूत्) होता है जिन (ते) आपका (यज्ञः) पदार्थों का मेल करना रूप व्यवहार (वज्रम्) शस्त्रविशेष की (आवत्) रक्षा करे वह (यज्ञियः) यज्ञों में चतुर (सन्) हुए आप (यज्ञेन) सङ्गत कर्म से (यज्ञम्) सङ्गत व्यवहार की (अव) रक्षा करो ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! आप लोग जो उत्तम क्रिया से उत्तम क्रियाओं को बढ़ावैं तो आप लोग रक्षित हुए अन्य जनों की भी रक्षा करने के योग्य होवें ॥१२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह।

अन्वय:

हे इन्द्र हि यतस्तेऽहिहत्ये वर्षकर्मनिमित्तो यज्ञो वर्धनः सुतसोमो मियेध उत प्रियो भूत्। यस्य ते यज्ञो वज्रमावत्स यज्ञियः संस्त्वं यज्ञेन यज्ञमव ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञः) सङ्गन्तव्यो व्यवहारः (हि) यतः (ते) तव (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक (वर्धनः) उन्नेता (भूत्) भवति (उत) अपि (प्रियः) प्रीतिसम्पादकः (सुतसोमः) सुतं निष्पन्नं सोम ऐश्वर्य्यं यस्मात्सः (मियेधः) येन मिनोति दुःखं प्रक्षिपति सः। अत्र बाहुलकादौणादिक एध प्रत्ययः। (यज्ञेन) सङ्गतेन कर्मणा (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यं व्यवहारम् (अत्र) रक्ष (यज्ञियः) यज्ञेषु कुशलः (सन्) (यज्ञः) सङ्गतो व्यवहारः (ते) तव (वज्रम्) शस्त्रविशेषम् (अहिहत्ये) अहेर्मेघस्य हत्या हननं पतनं येन तस्मिन्। निमित्तार्थेऽत्र सप्तमी। (आवत्) रक्षेत् ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या यूयं यदि सत्क्रियया सत्क्रिया वर्धयेत तर्हि यूयं रक्षिताः सन्तोऽन्यानपि रक्षितुमर्हत ॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! तुम्ही उत्तम कार्य करून त्यांचे वर्धन कराल तर रक्षित असलेल्या व इतर लोकांचेही रक्षण करण्यायोग्य बनाल. ॥ १२ ॥