इन्द्र॒ सोमं॑ सोमपते॒ पिबे॒मं माध्य॑न्दिनं॒ सव॑नं॒ चारु॒ यत्ते॑। प्र॒प्रुथ्या॒ शिप्रे॑ मघवन्नृजीषिन्वि॒मुच्या॒ हरी॑ इ॒ह मा॑दयस्व॥
indra somaṁ somapate pibemam mādhyaṁdinaṁ savanaṁ cāru yat te | prapruthyā śipre maghavann ṛjīṣin vimucyā harī iha mādayasva ||
इन्द्र॑। सोम॑म्। सो॒म॒ऽप॒ते॒। पिब॑। इ॒मम्। माध्य॑न्दिनम्। सव॑नम्। चारु॑। यत्। ते॒। प्र॒ऽप्रुथ्य॑। शिप्रे॒ इति॑। म॒घ॒ऽवन्। ऋ॒जी॒षि॒न्। वि॒ऽमुच्य॑। हरी॒ इति॑। इ॒ह। मा॒द॒य॒स्व॒॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब सत्रह ऋचावाले बत्तीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में नित्य कर्म का विधान कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ नित्यकर्मविधिरुच्यते।
हे मघवन्त्सोमपत इन्द्र त्वमिमं सोमं पिब चारु माध्यन्दिनं सवनं कुरु। हे ऋजीषिंस्ते यच्छिप्रे स्तस्ते प्रप्रुथ्या दुर्व्यसनानि विमुच्य हरी प्रयोज्य त्वमिह मादयस्व ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात सोम, माणसे, ईश्वर व विद्युतच्या गुणांचे वर्णन केल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.