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अनु॑ कृ॒ष्णे वसु॑धिती जिहाते उ॒भे सूर्य॑स्य मं॒हना॒ यज॑त्रे। परि॒ यत्ते॑ महि॒मानं॑ वृ॒जध्यै॒ सखा॑य इन्द्र॒ काम्या॑ ऋजि॒प्याः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

anu kṛṣṇe vasudhitī jihāte ubhe sūryasya maṁhanā yajatre | pari yat te mahimānaṁ vṛjadhyai sakhāya indra kāmyā ṛjipyāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अनु॑। कृ॒ष्णे इति॑। वसु॑धिती॒ इति॒ वसु॑ऽधिती। जि॒हा॒ते॒ इति॑। उ॒भे इति॑। सूर्य॑स्य। मं॒हना॑। यज॑त्रे। परि॑। यत्। ते॒। म॒हि॒मान॑म्। वृ॒जध्यै॑। सखा॑यः। इ॒न्द्र॒। काम्याः॑। ऋ॒जि॒प्याः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:31» मन्त्र:17 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:8» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य से युक्त राजन् ! (यत्) जो (ते) आपके (काम्याः) कामना करने योग्य (ऋजिप्याः) सरल व्यवहारों के वर्द्धक (सखायः) मित्र हुए (महिमानम्) महिमा को (अनु) (कृष्णे) खींची गयी (उभे) दोनों (यजत्रे) परस्पर मिली हुई (वसुधिती) अन्तरिक्ष और पृथिवी (सूर्यस्य) सूर्य के (मंहना) महत्व से (वृजध्यै) रोकने को (परि) (जिहाते) प्राप्त होते से हैं उनको बढ़ाते हैं, वे आपसे सत्कार पाने योग्य हैं ॥१७॥
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य अपने प्रताप से भूमि और प्रकाश का आकर्षण करके धारण करता है और जैसे भूमि तथा प्रकाश सम्पूर्ण पदार्थों को धारण करते हैं, वैसे उत्तम पुरुष को चाहिये कि महिमा को धारण और दुर्व्यसनों को त्याग करके मित्रों का सत्कार करें ॥१७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र यद्ये ते काम्या ऋजिप्याः सखायो महिमानमनुकृष्णे उभे यजत्रे वसुधिती सूर्यस्य मंहना वृजध्यै परि जिहाते इव स्तस्ते वर्धयन्ति ते त्वया सत्कर्त्तव्याः ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अनु) (कृष्णे) कर्षिते (वसुधिती) वसूनां पदार्थानां धर्त्र्यौ द्यावापृथिव्यौ (जिहाते) गच्छतः (उभे) (सूर्य्यस्य) (मंहना) महत्वेन (यजत्रे) सङ्गते (परि) (यत्) ये (ते) तव (महिमानम्) (वृजध्यै) वर्जितुम् (सखायः) सुहृदः सन्तः (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त राजन् (काम्याः) कमनीयाः (ऋजिप्याः) ऋजीन्सरलान्व्यवहारान् प्यायन्ते वर्धयन्ति ते ॥१७॥
भावार्थभाषाः - यथा सूर्यः स्वमहिम्ना भूमिप्रकाशावनुकृष्य धरति यथा भूमिप्रकाशौ सर्वान् धरतस्तथोत्तमपुरुषेण स्वमहिमानं धृत्वा दुर्व्यसनानि वर्जित्वा सखायः सत्कर्त्तव्याः ॥१७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा सूर्य आपल्या प्रतापाने भूमी व प्रकाशाचे आकर्षण करून धारण करतो व जशी भूमी व प्रकाश संपूर्ण पदार्थांना धारण करतात तसे उत्तम पुरुषांनी महिमामय बनून दुर्व्यसनांचा त्याग करून मित्रांचा सत्कार करावा. ॥ १७ ॥