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स जा॒तेभि॑र्वृत्र॒हा सेदु॑ ह॒व्यैरुदु॒स्रिया॑ असृज॒दिन्द्रो॑ अ॒र्कैः। उ॒रू॒च्य॑स्मै घृ॒तव॒द्भर॑न्ती॒ मधु॒ स्वाद्म॑ दुदुहे॒ जेन्या॒ गौः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa jātebhir vṛtrahā sed u havyair ud usriyā asṛjad indro arkaiḥ | urūcy asmai ghṛtavad bharantī madhu svādma duduhe jenyā gauḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। जा॒तेभिः॑। वृ॒त्र॒ऽहा। सः। इत्। ऊँ॒ इति॑। ह॒व्यैः। उत्। उ॒स्रियाः॑। अ॒सृ॒ज॒त्। इन्द्रः॑। अ॒र्कैः। उ॒रू॒ची। अ॒स्मै॒। घृ॒तऽव॑त्। भर॑न्ती। मधु॑। स्वाद्म॑। दु॒दु॒हे॒। जेन्या॑। गौः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:31» मन्त्र:11 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:7» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (वृत्रहा) मेघ के नाशकर्त्ता सूर्य्य के सदृश (इन्द्रः) अतिश्रेष्ठ ऐश्वर्य्य का कारण (उस्रियाः) वाणियों को किरणों के सदृश (उत्, असृजत्) उत्पन्न करता है (अर्कैः) आदर करने योग्य मनुष्यों (हव्यैः) ग्रहण करने के योग्य पदार्थों और (जातेभिः) उत्पन्न हुए व्यवहारों के साथ पदार्थों को (असृजत्) उत्पन्न करता है (स, इत्) वही सुख को प्राप्त होता है जो (उरूची) बहुतों का सत्कार करती (घृतवत्) घृत वा जल उत्तमता युक्त (स्वाद्म) स्वादिष्ठ (मधु) मीठे गुण से युक्त पदार्थ को (भरन्ती) धारण करती हुई (जेन्या) जीतने योग्य (गौः) पृथिवी (अस्मै) उस ऐश्वर्य्य के लिये (दुदुहे) दुही जाती है उसको वह पुरुष (उ) ही जानै ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य अपने प्रकाश से सम्पूर्ण उत्पन्न हुए सृष्टि के पदार्थों का प्रकाश करता है, वैसे ही विद्वान् पुरुष विज्ञान से सम्पूर्ण पदार्थों को जानकर उसका सर्वत्र प्रकाश करें ॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यो वृत्रहेन्द्र उस्रिया उदसृजदिवार्कैर्हव्यैर्जातेभिः सह पदार्थानसृजत्स इत्सुखमाप्नोति। या उरूची घृतवत्स्वाद्म मधु भरन्ती जेन्या गौरस्मै दुदुहे तां स उ विद्यात् ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (जातेभिः) उत्पन्नैः सह (वृत्रहा) मेघस्य हन्ता सूर्य्य इव (सः) (इत्) एव (उ) (हव्यैः) आदातुमर्हैः (उत्) (उस्रियाः) गावः किरणाः (असृजत्) सृजति (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यहेतुः (अर्कैः) अर्चनीयैर्मनुष्यैः सह (उरूची) योरूणि बहून्यञ्चति सा (अस्मै) (घृतवत्) घृतमाज्यमुदकं वा प्रशस्तं विद्यते यस्मिँस्तत् (भरन्ती) धरन्ती (मधु) मधुरगुणोपेतम् (स्वाद्म) स्वादिष्ठम् (दुदुहे) दुह्यते (जेन्या) जेतुं योग्या (गौः) पृथिवी ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यः स्वप्रकाशेन सर्वानुत्पन्नान् सृष्टिपदार्थान् प्रकाशयति तथैव विद्वान् विज्ञानेन सर्वान् विदित्वा सर्वत्र प्रकाशयेत् ॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य आपल्या प्रकाशाने उत्पन्न झालेल्या सृष्टीच्या संपूर्ण पदार्थांना प्रकाशित करतो, तसे विद्वान पुरुषांनी विज्ञानाद्वारे पदार्थांना जाणून सर्वत्र प्रकट करावे. ॥ ११ ॥