स जा॒तेभि॑र्वृत्र॒हा सेदु॑ ह॒व्यैरुदु॒स्रिया॑ असृज॒दिन्द्रो॑ अ॒र्कैः। उ॒रू॒च्य॑स्मै घृ॒तव॒द्भर॑न्ती॒ मधु॒ स्वाद्म॑ दुदुहे॒ जेन्या॒ गौः॥
sa jātebhir vṛtrahā sed u havyair ud usriyā asṛjad indro arkaiḥ | urūcy asmai ghṛtavad bharantī madhu svādma duduhe jenyā gauḥ ||
सः। जा॒तेभिः॑। वृ॒त्र॒ऽहा। सः। इत्। ऊँ॒ इति॑। ह॒व्यैः। उत्। उ॒स्रियाः॑। अ॒सृ॒ज॒त्। इन्द्रः॑। अ॒र्कैः। उ॒रू॒ची। अ॒स्मै॒। घृ॒तऽव॑त्। भर॑न्ती। मधु॑। स्वाद्म॑। दु॒दु॒हे॒। जेन्या॑। गौः॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह।
यो वृत्रहेन्द्र उस्रिया उदसृजदिवार्कैर्हव्यैर्जातेभिः सह पदार्थानसृजत्स इत्सुखमाप्नोति। या उरूची घृतवत्स्वाद्म मधु भरन्ती जेन्या गौरस्मै दुदुहे तां स उ विद्यात् ॥११॥