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प्र सू त॑ इन्द्र प्र॒वता॒ हरि॑भ्यां॒ प्र ते॒ वज्रः॑ प्रमृ॒णन्ने॑तु॒ शत्रू॑न्। ज॒हि प्र॑ती॒चो अ॑नू॒चः परा॑चो॒ विश्वं॑ स॒त्यं कृ॑णुहि वि॒ष्टम॑स्तु॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra sū ta indra pravatā haribhyām pra te vajraḥ pramṛṇann etu śatrūn | jahi pratīco anūcaḥ parāco viśvaṁ satyaṁ kṛṇuhi viṣṭam astu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। सु। ते॒। इ॒न्द्र॒। प्र॒ऽवता॑। हरि॑ऽभ्याम्। प्र। ते॒। वज्रः॑। प्र॒ऽमृ॒णन्। ए॒तु॒। शत्रू॑न्। ज॒हि। प्र॒ती॒चः। अ॒नू॒चः। परा॑चः। विश्व॑म्। स॒त्यम्। कृ॒णु॒हि॒। वि॒ष्टम्। अ॒स्तु॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:30» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:2» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सूर्य के सदृश प्रकाशमान ! (हरिभ्याम्) उत्तम प्रकार शिक्षायुक्त घोड़ों से युक्त रथ में (प्रवता) उत्तम मार्ग से आप जैसे (वज्रः) किरणों के सदृश शस्त्रों का समूह और (शत्रून्) दुष्ट कर्म करनेवालों को (प्रमृणन्) अत्यन्त नाश करते हुए (प्र, एतु) प्राप्त हूजिये इस प्रकार (ते) आपका विजय होता है आप (प्रतीचः) पीछे वर्त्तमान (अनूचः) और कपट से अनुकूल अर्थात् (पराचः) दूर स्थल में विराजमान शत्रुओं की (प्र) (जहि) हिंसा करो तथा (विश्वम्) संपूर्ण (सत्यम्) सत्य को (सुकृणुहि) अच्छे प्रकार बढ़ाओ जिससे वह (विष्टम्) व्याप्त (अस्तु) हो ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य दुष्ट आचरण करनेवाले मनुष्य आदि प्राणियों का निवारण करके सत्य का प्रचार करें, वे सुख से आनन्द भोगते हैं ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र हरिभ्यां युक्ते रथे प्रवता मार्गेण भवान् वज्र इव शत्रून्प्रमृणन्प्रैतु। एवं ते विजयो भवति त्वं प्रतीचोऽनूचः पराचः शत्रून्प्रजहि विश्वं सत्यं सुकृणुहि यतो विष्टं चास्तु एवं ते सत्कीर्त्तिः प्रवर्त्तेत ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (सु) (ते) तव (इन्द्र) सूर्य्यइव वर्त्तमान (प्रवता) अर्वाचीनेन मार्गेण (हरिभ्याम्) सुशिक्षिताभ्यामश्वाभ्याम् (प्र) (ते) तव (वज्रः) किरण इव शस्त्रसमूहः (प्रमृणन्) प्रकर्षेण हिंसन् (एतु) प्राप्नोतु (शत्रून्) दुष्टकर्मकर्तॄन् (जहि) हिन्धि (प्रतीचः) पश्चात् स्थितान् (अनूचः) कपटेनानुकूलान् (पराचः) पराग्भूतान् दूरस्थान् (विश्वम्) (सत्यम्) (कृणुहि) (विष्टम्) व्याप्तम् (अस्तु) ॥६॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या दुष्टाचारिणो मनुष्यादिप्राणिनो निरुध्य सत्यं प्रवर्त्तयेयुस्ते सुखेनानन्दमाप्नुयुः ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे दुष्ट आचरण करणाऱ्या माणसांचे निवारण करून सत्याचा प्रचार करतात ती आनंद भोगतात. ॥ ६ ॥