वांछित मन्त्र चुनें

स्व॒स्तये॑ वा॒जिभि॑श्च प्रणेतः॒ सं यन्म॒हीरिष॑ आ॒सत्सि॑ पू॒र्वीः। रा॒यो व॒न्तारो॑ बृह॒तः स्या॑मा॒स्मे अ॑स्तु॒ भग॑ इन्द्र प्र॒जावा॑न्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svastaye vājibhiś ca praṇetaḥ saṁ yan mahīr iṣa āsatsi pūrvīḥ | rāyo vantāro bṛhataḥ syāmāsme astu bhaga indra prajāvān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्व॒स्तये॑। वा॒जिऽभिः॑। च॒। प्र॒ने॒त॒रिति॑ प्रऽनेतः। सम्। यत्। म॒हीः। इषः॑। आ॒ऽसत्सि॑। पू॒र्वीः। रा॒यः। व॒न्तारः॑। बृ॒ह॒तः। स्या॒म॒। अ॒स्मे इति॑। अ॒स्तु॒। भगः॑। इ॒न्द्र॒। प्र॒जाऽवा॑न्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:30» मन्त्र:18 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:4» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:18


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (प्रणेतः) सत्य और असत्य के निश्चयकारक (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य से युक्त ! (यत्) जो आप (वाजिभिः) घोड़ों के सदृश वेगयुक्त अग्नि आदि पदार्थों तथा और साधनों से (पूर्वीः) पूर्व जनों से प्राप्त (महीः) बड़ी (इषः) इच्छाओं से (सम्) (आसत्सि) सब प्रकार वर्त्तमान हैं (जो) (बृहतः) बड़े (वन्तारः) विभाग करनेवाले (रायः) धन हैं वे (अस्मै) हम लोगों के (स्वस्तये) सुख के लिये (अस्तु) होवें (प्रजावान्) बहुत प्रजाओं से युक्त (भगः) ऐश्वर्य और उनको प्राप्त होकर हम लोग सुखी (स्याम) होवें ॥१८॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य लोग सुख के लिये बहुत से साधनों को एकत्र करते, वे ऐश्वर्य को प्राप्त होके आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥१८॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे प्रणेतरिन्द्र ! यद्यस्त्वं वाजिभिरन्यैः साधनैश्च पूर्वीर्महीरिष समासत्सि ये बृहतो वन्तारो रायः सन्ति तेऽस्मे स्वस्तये सन्तु। प्रजावान् भगश्च तानि प्राप्य वयं सुखिनः स्याम ॥१८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वस्तये) सुखाय (वाजिभिः) तुरङ्गैरिव वेगवद्भिरग्न्यादिभिः (च) (प्रणेतः) यः सत्याऽसत्ये प्रणयति तत्सम्बुद्धौ (सम्) (यत्) यः (महीः) महतीः (इषः) इच्छाः (आसत्सि) समन्तात्सीदसि। अत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (पूर्वीः) पूर्वैः प्राप्ताः (रायः) धनानि (वन्तारः) विभाजकाः (बृहतः) महतः (स्याम) भवेम (अस्मे) अस्माकम् (अस्तु) भवतु (भगः) ऐश्वर्य्यम् (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (प्रजावान्) बह्व्यः प्रजा विद्यन्ते यस्मिन् सः ॥१८॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः सुखाय बहूनि साधनानि समादधति ते ऐश्वर्यं प्राप्य मोदन्ते ॥१८॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे सुखासाठी पुष्कळ साधने एकत्र करतात ती ऐश्वर्य प्राप्त करून आनंद भोगतात. ॥ १८ ॥