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अ॒ला॒तृ॒णो ब॒ल इ॑न्द्र ब्र॒जो गोः पु॒रा हन्तो॒र्भय॑मानो॒ व्या॑र। सु॒गान्प॒थो अ॑कृणोन्नि॒रजे॒ गाः प्राव॒न्वाणीः॑ पुरुहू॒तं धम॑न्तीः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

alātṛṇo vala indra vrajo goḥ purā hantor bhayamāno vy āra | sugān patho akṛṇon niraje gāḥ prāvan vāṇīḥ puruhūtaṁ dhamantīḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ला॒तृ॒णः। ब॒लः। इ॒न्द्र॒। ब्र॒जः। गोः। पु॒रा। हन्तोः॑। भय॑मानः। वि। आ॒र॒। सु॒ऽगान्। प॒थः। अ॒कृ॒णो॒त्। निः॒ऽअजे॑। गाः। प्र। आ॒व॒न्। वाणीः॑। पु॒रु॒ऽहू॒तम्। धम॑न्तीः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:30» मन्त्र:10 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:2» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) श्रेष्ठ ऐश्वर्य्य के दाता ! (अलातृणः) सम्पूर्ण संसार के प्रलयकर्त्ता (बलः) बलयुक्त (ब्रजः) चलनेवाले (भयमानः) भय को प्राप्त होते हुए आप (सुगान्) सुख से जिनमें मनुष्य आदि चलें ऐसे (पथः) मार्गों को (वि) (आर) विशेष करके प्राप्त होइये जो (पुरा) प्रथम (गोः) पृथिवी का (हन्तोः) नाश करने की (अकृणोत्) क्रिया करें वा जो (पुरुहूतम्) बहुतों से प्रशंसायुक्त (धमन्तीः) शब्द करती हुई (वाणीः) उत्तम प्रकार शिक्षायुक्त (गाः) चलनेवाली वाणी (प्र) (आवन्) अतिशय रक्षा करती हैं उसको और उनको (निरजे) अत्यन्त चलने के लिये विशेष करके प्राप्त होइये ॥१०॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि सदा ही अधर्म के आचरण से डर के धर्म में प्रवृत्त हों और बुरे व्यसनों को त्याग के धर्मयुक्त मार्ग से चलें ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र ! अलातृणो बलो ब्रजो भयमानो भवान् सुगान्पथो व्यार यः पुरा गोर्हन्तोरकृणोद्या पुरुहूतं धमन्तीर्वाणीर्गाः प्रावन्तं ताश्च निरजे व्यार ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अलातृणः) योऽलं तृणाति सः (बलः) बलवान् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक (ब्रजः) यो ब्रजति गच्छेत् सः (गोः) पृथिव्याः (पुरा) (हन्तोः) हन्तुम् (भयमानः) भयं प्राप्तः। अत्र व्यत्ययेन शानच्। (वि, आर) विशेषेण गच्छति (सुगान्) सुखेन गच्छति येषु तान् (पथः) मार्गान् (अकृणोत्) कुर्य्यात् (निरजे) नितरां गमनाय (गाः) या गच्छन्ति ताः (प्र) (आवन्) प्रकर्षेण रक्षन्ति (वाणीः) सुशिक्षिता वाचः (पुरुहूतम्) बहुभिः प्रशंसितम् (धमन्तीः) शब्दयन्त्यः ॥१०॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सदैवाऽधर्माचरणाद्भीत्वा धर्म्ये प्रवर्त्तितव्यं दुर्व्यसनानि हत्वा धर्म्यमार्गेण गन्तव्यम् ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी सदैव अधर्माच्या आचरणाला भ्यावे व धर्मास प्रवृत्त व्हावे, तसेच वाईट व्यसनांचा त्याग करून धर्मयुक्त मार्गाने चालावे. ॥ १० ॥