अग्ने॑ जु॒षस्व॑ नो ह॒विः पु॑रो॒ळाशं॑ जातवेदः। प्रा॒तः॒सा॒वे धि॑यावसो॥
agne juṣasva no haviḥ puroḻāśaṁ jātavedaḥ | prātaḥsāve dhiyāvaso ||
अग्ने॑। जु॒षस्व॑। नः॒। ह॒विः। पु॒रो॒ळाश॑म्। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। प्रा॒तः॒ऽसा॒वे। धि॒या॒व॒सो॒ इति॑ धियाऽवसो॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब छः ऋचावाले अट्ठाईसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से अग्नि और विद्वानों का वर्णन करते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाग्निविद्वद्विषयमाह।
हे धियावसो जातवेदोऽग्ने यथाऽग्निः प्रातःसावे नो हविः पुरोडाशं सेवते तथैव तत् त्वं जुषस्व ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.