ऊ॒र्जो नपा॑तमध्व॒रे दी॑दि॒वांस॒मुप॒ द्यवि॑। अ॒ग्निमी॑ळे क॒विक्र॑तुम्॥
ūrjo napātam adhvare dīdivāṁsam upa dyavi | agnim īḻe kavikratum ||
ऊ॒र्जः। नपा॑तम्। अ॒ध्व॒रे। दी॒दि॒ऽवांस॑म्। उप॑। द्यवि॑। अ॒ग्निम्। ई॒ळे॒। क॒विऽक्र॑तुम्॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह।
हे मनुष्या यं द्यव्यध्वरेऽग्निमिव वर्त्तमानमूर्जो नपातं कविक्रतुं दीदिवांसं विद्वांसमुपेळे तथैतं यूयमपि प्रशंसत ॥१२॥