अग्ने॑ दि॒वः सू॒नुर॑सि॒ प्रचे॑ता॒स्तना॑ पृथि॒व्या उ॒त वि॒श्ववे॑दाः। ऋध॑ग्दे॒वाँ इ॒ह य॑जा चिकित्वः॥
agne divaḥ sūnur asi pracetās tanā pṛthivyā uta viśvavedāḥ | ṛdhag devām̐ iha yajā cikitvaḥ ||
अग्ने॑। दि॒वः। सू॒नुः। अ॒सि॒। प्रऽचे॑ताः। तना॑। पृ॒थि॒व्याः। उ॒त। वि॒श्वऽवे॑दाः। ऋध॑क्। दे॒वान्। इ॒ह। य॒ज॒। चि॒कि॒त्वः॒॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले पच्चीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र से सूर्यरूप अग्नि के दृष्टान्त से विद्वानों का कर्त्तव्य कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ सूर्याग्निदृष्टान्तेन विद्वत्कृत्यमाह।
हे चिकित्वोऽग्ने ! यथा दिवः सूनुः सूर्य्य इव प्रचेताः पृथिव्यास्तना उत विश्ववेदा असि स त्वमिह देवानृधग्यज ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.