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नि त्वा॑ दधे॒ वर॒ आ पृ॑थि॒व्या इळा॑यास्प॒दे सु॑दिन॒त्वे अह्ना॑म्। दृ॒षद्व॑त्यां॒ मानु॑ष आप॒यायां॒ सर॑स्वत्यां रे॒वद॑ग्ने दिदीहि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ni tvā dadhe vara ā pṛthivyā iḻāyās pade sudinatve ahnām | dṛṣadvatyām mānuṣa āpayāyāṁ sarasvatyāṁ revad agne didīhi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नि। त्वा॒। द॒धे॒। वरे॑। आ। पृ॒थि॒व्याः। इळा॑याः। प॒दे। सु॒ऽदि॒न॒ऽत्वे। अह्ना॑म्। दृ॒षत्ऽव॑त्याम्। मानु॑षे। आ॒प॒याया॑म्। सर॑स्वत्याम्। रे॒वत्। अ॒ग्ने॒। दि॒दी॒हि॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:23» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:23» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी विद्वान् पुरुष ! मैं जैसे (त्वा) आपको (पृथिव्याः) भूमि वा अन्तरिक्ष (वरे) उत्तम व्यवहार और (इळायाः) वाणी के (पदे) प्राप्त होने योग्य स्थान में (अह्नाम्) दिवसों के (सुदिनत्वे) उत्तम दिनों में (दृषद्वत्याम्) प्रस्तरयुक्त (आपयायाम्) प्राणों में व्यापक (सरस्वत्याम्) विज्ञानवाली वाणी और (मानुषे) मननशील में (रेवत्) श्रेष्ठ धन के तुल्य (नि) (दधे) धारण किया वैसे मननकर्त्ता आप मुझको (आ) (दिदीहि) प्रकाशित करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि परस्पर मित्रभाव से वर्त्तमान करके विद्याधर्म सज्जनता और सुखों को बढ़ावें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह।

अन्वय:

हे अग्ने ! अहं यथा त्वा पृथिव्या वर इळायास्पदेऽह्नां सुदिनत्वे दृषद्वत्यामापयायां सरस्वत्यां मानुषे रेवन्निदधे तथा मामादिदीहि ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नि) (त्वा) त्वाम् (दधे) (वरे) उत्तमे व्यवहारे (आ) समन्तात् (पृथिव्याः) भूमेरन्तरिक्षस्य वा (इळायाः) वाचः (पदे) प्रापणीये स्थाने (सुदिनत्वे) शोभनानां दिनानां भावे (अह्नाम्) दिवसानाम् (दृषद्वत्याम्) बहवो दृषदो विद्यन्ते यस्याम् (मानुषे) मननशीले (आपयायाम्) प्राणव्यापिकायाम् (सरस्वत्याम्) विज्ञानवत्यां वाचि (रेवत्) प्रशस्तधनेन तुल्यम् (अग्ने) पावकवद्विद्वन् (दिदीहि) प्रकाशय ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याः सखायो भूत्वाऽन्योऽन्यस्मिन् विद्याधर्मसभ्यतासुखानि वर्द्धयेयुः ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी परस्पर मित्रभावाने विद्या, धर्म, सज्जनता व सुख वाढवावे. ॥ ४ ॥