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अग्ने॒ यत्ते॑ दि॒वि वर्चः॑ पृथि॒व्यां यदोष॑धीष्व॒प्स्वा य॑जत्र। येना॒न्तरि॑क्षमु॒र्वा॑त॒तन्थ॑ त्वे॒षः स भा॒नुर॑र्ण॒वो नृ॒चक्षाः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agne yat te divi varcaḥ pṛthivyāṁ yad oṣadhīṣv apsv ā yajatra | yenāntarikṣam urv ātatantha tveṣaḥ sa bhānur arṇavo nṛcakṣāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्ने॑। यत्। ते॒। दि॒वि। वर्चः॑। पृ॒थि॒व्याम्। यत्। ओष॑धीषु। अ॒प्ऽसु। आ। य॒ज॒त्र॒। येन॑। अ॒न्तरि॑क्षम्। उ॒रु। आ॒ऽत॒तन्थ॑। त्वे॒षः। सः। भा॒नुः। अ॒र्ण॒वः। नृ॒ऽचक्षाः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:22» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:22» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यजत्र) प्रीति के पात्र (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी ! (ते) आपके (दिवि) प्रकाश में (यत्) जो (वर्चः) तेज (यत्) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में (ओषधीषु) जो ओषधियों में और जो तेज (अप्सु) जलों में (आ) अच्छा वर्त्तमान है तथा (येन) जिस तेज से (अन्तरिक्षम्) पोलरूप (उरु) वक्षस्थल (आततन्थ) सब ओर से विस्तारकर्त्ता (सः) वह आप (त्वेषः) प्रकाशमान (भानुः) दीप्तियुक्त (अर्णवः) समुद्र के सदृश (नृचक्षाः) मनुष्यों के देखनेवाले होइये ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो बिजुली नामक तेज सूर्य्य वायु भूमि और जल में तथा अन्य पदार्थों ओषधी आदि में वर्त्तमान, उसको जान के सुख का विस्तार करो ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे यजत्राग्ने ! ते दिवि यद्वर्चो यत्पृथिव्यां यदोषधीषु यदप्स्वा वर्तते येनोर्वन्तरिक्षमाततन्थ स त्वं त्वेषो भानुरर्णव इव नृचक्षा भव ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (यत्) (ते) तव (दिवि) प्रकाशे (वर्चः) दीप्तिः (पृथिव्याम्) (यत्) (ओषधीषु) सोमादिषु (अप्सु) जलेषु (आ) समन्तात् (यजत्र) सङ्गन्तः (येन) (अन्तरिक्षम्) (उरु) (आततन्थ) समन्तात्तनोति (त्वेषः) दीप्तिमान् (सः) (भानुः) दीप्तिमान् (अर्णवः) समुद्र इव (नृचक्षाः) नॄणां द्रष्टा ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यद्विद्युदाख्यं तेजः सूर्य्ये वायौ भूमौ जलेऽन्यत्र चौषध्यादिषु वर्त्तते तद्विज्ञाय सुखानि विस्तारयत ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - येथे वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्युत नावाचे तेज सूर्य, वायू, भूमी, जल व औषधीत विद्यमान असते. ते जाणून सुख वाढवा. ॥ २ ॥