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अ॒ग्निं होता॑रं॒ प्र वृ॑णे मि॒येधे॒ गृत्सं॑ क॒विं वि॑श्व॒विद॒ममू॑रम्। स नो॑ यक्षद्दे॒वता॑ता॒ यजी॑यान्रा॒ये वाजा॑य वनते म॒घानि॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agniṁ hotāram pra vṛṇe miyedhe gṛtsaṁ kaviṁ viśvavidam amūram | sa no yakṣad devatātā yajīyān rāye vājāya vanate maghāni ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निम्। होता॑रम्। प्र। वृ॒णे॒। मि॒येधे॑। गृत्स॑म्। क॒विम्। वि॒श्व॒ऽविद॑म्। अमू॑रम्। सः। नः॒। य॒क्ष॒त्। दे॒वऽता॑ता। यजी॑यान्। रा॒ये। वाजा॑य। व॒न॒ते॒। म॒घानि॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:19» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:19» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब इस तृतीय मण्डल में १९ उन्नीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों का धनादि ऐश्वर्य्य कैसे बढ़े, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् पुरुष ! मैं जिस (मियेधे) घृतादि के प्रक्षेपण से होने योग्य यज्ञ में (होतारम्) हवनकर्ता वा दाता (विश्वविदम्) सकल शास्त्रों के वेत्ता (अमूरम्) मूढता आदि दोषरहित (कविम्) तीक्ष्ण बुद्धियुक्त वा बहुत शास्त्रों के अध्यापक (गृत्सम्) शिक्षा देने में चतुर बुद्धिमान् और (अग्निम्) अग्नि के सदृश तेजस्वी पुरुष को (प्र) (वृणे) स्वीकार करता हूँ (सः) वह (यजीयान्) अत्यन्त यज्ञकर्त्ता आप (वाजाय) ज्ञानदाता और (वनते) प्रसन्नता से दिये पदार्थों के स्वीकारकर्त्ता पुरुष के लिये तथा (राये) धनप्राप्ति के लिये (मघानि) आदर करने योग्य धन और (देवताता) विद्वानों को (नः) हम लोगों के लिये (यक्षत्) संयुक्त कीजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जिस अधिकार में जिस पुरुष की योग्यता हो, उसी ही के लिये वह अधिकार देवें, क्योंकि ऐसा करने पर धनधान्यरूप ऐश्वर्य्य की वृद्धि हो सकती है ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्याणां धनाद्यैश्वर्यं कथं वर्धेतेत्याह।

अन्वय:

हे विद्वन्नहं यं मियेधे होतारं विश्वविदममूरं कविं गृत्समग्निं प्रवृणे स यजीयाँस्त्वं वाजाय वनते राये मघानि देवताता नोऽस्मान्यक्षत् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निम्) पावक इव वर्त्तमानम् (होतारम्) हवनकर्त्तारं दातारम् (प्र) (वृणे) स्वीकरोमि (मियेधे) घृतादिप्रक्षेपणेन प्रशंसनीये यज्ञे (गृत्सम्) यो गृणाति तं मेधाविनम् (कविम्) क्रान्तप्रज्ञं बहुशास्त्राऽध्यापकम् (विश्वविदम्) यो विश्वानि सर्वाणि शास्त्राणि वेत्ति तम् (अमूरम्) मूढतादिदोषरहितम्। अत्र वर्णव्यत्ययेन ढस्य रः। (सः) (नः) अस्मान् (यक्षत्) सङ्गमयेत् (देवताता) देवान् विदुषः (यजीयान्) अतिशयेन यष्टा (राये) धनप्राप्तये (वाजाय) विज्ञानप्रदाय (वनते) संभजमानाय (मघानि) पूजितव्यानि धनानि ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यस्मिन्नधिकारे यस्य योग्यता भवेत् तस्मा एव सोऽधिकारो देयः। एवं सति धनधान्यैश्वर्य्यं प्रवृद्धं भवितुं शक्यम् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे.

भावार्थभाषाः - माणसांनी ज्या पुरुषाची जी योग्यता असेल त्याला तोच अधिकार द्यावा. कारण असे करण्यामुळे धनधान्यरूपी ऐश्वर्याची वृद्धी होऊ शकते. ॥ १ ॥