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अ॒यम॒ग्निः सु॒वीर्य॒स्येशे॑ म॒हः सौभ॑गस्य। रा॒य ई॑शे स्वप॒त्यस्य॒ गोम॑त॒ ईशे॑ वृत्र॒हथा॑नाम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayam agniḥ suvīryasyeśe mahaḥ saubhagasya | rāya īśe svapatyasya gomata īśe vṛtrahathānām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। अ॒ग्निः। सु॒ऽवीर्य॑स्य। ईशे॑। म॒हः। सौभ॑गस्य। रा॒यः। ई॒शे॒। सु॒ऽअ॒प॒त्यस्य॑। गोऽम॑तः। ईशे॑। वृ॒त्र॒ऽहथा॑नाम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:16» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः ऋचावाले सोलहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में अग्नि के गुणों को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (वृत्रहथानाम्) मेघ के सदृश वर्त्तमान शत्रुओं के हननकारियों के मध्य में (अयम्) यह (अग्निः) अग्नि के सदृश प्रकाशमान राजा (महः) श्रेष्ठ (सुवीर्य्यस्य) उत्तम बल का (ईशे) स्वामी तथा (सौभगस्य) श्रेष्ठ ऐश्वर्यभाव और (रायः) धन का (ईशे) स्वामी है (गोमतः) उत्तम वाणी तथा पृथिवी आदि युक्त पुरुष का स्वामी है (स्वपत्यस्य) उत्तम सन्तान युक्त पुरुष का स्वामी है, वैसे ही मैं इन पुरुषों के मध्य में दोष का (ईशे) स्वामी हूँ ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य लोग जैसे उत्तम प्रकार होम तथा यन्त्र आदि से सिद्ध किये हुए अग्नि से उत्तम बल श्रेष्ठ ऐश्वर्य्य और उत्तम सन्तानों को प्राप्त होके शत्रु लोगों का नाश करते, वैसे ही मनुष्य लोगों को चाहिये कि उत्तम पुरुषार्थ से उत्तम सेना अतुल ऐश्वर्य्य शरीर आत्मा बल से युक्त सन्तानों को प्राप्त होकर शत्रुओं के समान क्रोध आदि दोषों को त्यागें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाऽग्निगुणानाह।

अन्वय:

यथा वृत्रहथानां मध्येऽयमग्निर्महः सुवीर्यस्येशे सौभगस्य राय ईशे गोमतः स्वपत्यस्येशे तथाऽहमेतेषामेनस ईशे ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (अग्निः) अग्निरिव वर्त्तमानो राजा (सुवीर्य्यस्य) सुष्ठुबलस्य (ईशे) ईष्टे (महः) महतः (सौभगस्य) श्रेष्ठैश्वर्य्यस्य (रायः) (ईशे) (स्वपत्यस्य) शोभनान्यपत्यानि यस्य तस्य (गोतमः) शोभना वाग् पृथिव्यादयो वा विद्यन्ते यस्य तस्य (ईशे) ईष्टे। अत्र सर्वत्रैकपक्षे लोपस्त आत्मनेष्विति तलोपोऽन्यत्रोत्तमपुरुषस्यैकवचनम् (वृत्रहथानाम्) वृत्रा मेघा इव वर्त्तमानाः शत्रवो हथा हता यैस्तेषाम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या यथा सुसाधितेनाग्निनोत्तमं बलं महदैश्वर्य्यमुत्तमान्यपत्यानि च लब्ध्वा शत्रून् विनाशयन्ति तथैव मनुष्याः सुपुरुषार्थेनोत्तमं सैन्यमतुलमैश्वर्य्यं शरीरात्मबलयुक्तान् सन्तानान् प्राप्य शत्रुवद्दोषान् घ्नन्तु ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसे जशी उत्तम प्रकारे होम व यंत्र इत्यादींनी सिद्ध केलेल्या अग्नीने उत्तम बल, श्रेष्ठ ऐश्वर्य व उत्तम संतानांना प्राप्त करून शत्रूंचा नाश करतात, तसेच माणसांनी उत्तम पुरुषार्थाने उत्तम सेना, अतुल ऐश्वर्य, शरीर, आत्मा बलाने युक्त संताने प्राप्त करून क्रोध इत्यादी दोषांचा शत्रूंप्रमाणे त्याग करावा. ॥ १ ॥