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इळा॑मग्ने पुरु॒दंसं॑ स॒निं गोः श॑श्वत्त॒मं हव॑मानाय साध। स्यान्नः॑ सू॒नुस्तन॑यो वि॒जावाग्ने॒ सा ते॑ सुम॒तिर्भू॑त्व॒स्मे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iḻām agne purudaṁsaṁ saniṁ goḥ śaśvattamaṁ havamānāya sādha | syān naḥ sūnus tanayo vijāvāgne sā te sumatir bhūtv asme ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इळा॑म्। अ॒ग्ने॒। पु॒रु॒ऽदंस॑म्। स॒निम्। गोः। श॒श्व॒त्ऽत॒मम्। हव॑मानाय। सा॒ध॒। स्यात्। नः॒। सू॒नुः। तन॑यः। वि॒जाऽवा॑। अ॒ग्ने॒। सा। ते॒। सु॒ऽम॒तिः। भू॒तु॒। अ॒स्मे इति॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:15» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:15» मन्त्र:7 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के सदृश विद्याप्रकाशकारक विद्वन् ! आप (हवमानाय) प्रशंसाकर्ता के लिये (शश्वत्तमम्) अनादि से उत्पन्न (पुरुदंसम्) अत्यन्त धर्मसहित कर्मयुक्त (इळाम्) उत्तम शिक्षायुक्त वाणी को (गोः) पृथिवी के मध्य में (सनिम्) न्याय से सत्य और असत्य के विभागकारक ऐश्वर्य को (साध) सिद्ध करिये जिससे (नः) हम लोगों का (सूनुः) सन्तान (तनयः) धार्मिक पुत्र (विजावा) विजयशील (स्यात्) हो। हे (अग्ने) विद्वन् ! जो (ते) आपकी (सुमतिः) उत्तम बुद्धि है (सा) वह (अस्मे) हम लोगों के लिये (भूतु) होवे ॥७॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों को चाहिये कि जिज्ञासु जनों के लिये विद्या उत्तमशिक्षा धर्मानुष्ठान तथा ऐश्वर्यवृद्धि सिद्ध करें और जैसे कि सम्पूर्ण मनुष्यों के लड़के लड़कियाँ उत्तम कर्मयुक्त तथा सबके सन्तान विद्या बल युक्त होवें, ऐसा प्रयत्न करें अर्थात् सब स्थान से विद्या ग्रहण करके सबको देवें ॥७॥ इस सूक्त में विद्वान् अध्यापक अध्येता और अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ यह पन्द्रहवाँ सूक्त और पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने ! त्वं हवमानाय शश्वत्तमं पुरुदंसमिळां गोः सनिमैश्वर्यं साध येन नः सूनुः तनयः विजावा स्यात्। हे अग्ने या ते सुमतिरस्ति सास्मे भूतु ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इळाम्) सुशिक्षितां वाचम् (अग्ने) पावक इव विद्याप्रकाशक (पुरुदंसम्) पुरूणि बहूनि दंसांसि धर्म्याणि कर्माणि यस्य तम् (सनिम्) न्यायेन सत्याऽसत्यविभाजकम् (गोः) पृथिव्या मध्ये (शश्वत्तमम्) अनादिभूतम् (हवमानाय) प्रशंसमानाय (साध) साध्नुहि (स्यात्) भवेत् (नः) अस्माकम् (सूनुः) सन्तानः (तनयः) धार्मिकः पुत्रः (विजावा) विजयशीलः। अत्र जि धातोरौणादिको वन् प्रत्ययो बाहुलकादाकारादेशश्च। (अग्ने) विद्वन् (सा) (ते) तव (सुमतिः) शोभना प्रज्ञा (भूतु) भवतु (अस्मे) अस्मासु ॥७॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिर्जिज्ञासुभ्यो विद्यां सुशिक्षां धर्मानुष्ठानमैश्वर्यञ्च साधनीयं यथा सर्वेषां कुमाराः कुमार्यश्चोत्तमाः स्युस्तथा प्रयत्नोऽनुविधेयः सर्वतो विद्यां गृहीत्वा सर्वेभ्यो देया इति ॥७॥ अत्र विद्वदध्यापकाऽध्येत्रग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चदशं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ -विद्वानांनी जिज्ञासू लोकांसाठी विद्या, उत्तम शिक्षण, धर्मानुष्ठान, ऐश्वर्यसिद्धी करावी. सर्वांच्या मुलांमुलींनी उत्तम कार्य करावे, विद्याबलयुक्त व्हावे असा प्रयत्न करावा व सर्वांना विद्या द्यावी. ॥ ७ ॥