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स नः॒ शर्मा॑णि वी॒तये॒ऽग्निर्य॑च्छतु॒ शंत॑मा। यतो॑ नः प्रु॒ष्णव॒द्वसु॑ दि॒वि क्षि॒तिभ्यो॑ अ॒प्स्वा॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa naḥ śarmāṇi vītaye gnir yacchatu śaṁtamā | yato naḥ pruṣṇavad vasu divi kṣitibhyo apsv ā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। नः॒। शर्मा॑णि। वी॒तये॑। अ॒ग्निः। य॒च्छ॒तु॒। शम्ऽत॑मा। यतः॑। नः॒। प्रु॒ष्णव॑त्। वसु॑। दि॒वि। क्षि॒तिऽभ्यः॑। अ॒प्ऽसु। आ॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:13» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह पूर्वमन्त्र में कहा हुआ विद्वान् (अग्निः) अग्नि के सदृश (वीतये) विज्ञान आदि धन की प्राप्ति के लिये (नः) हम लोगों को (शन्तमा) अतिशय कल्याणकारक (शर्माणि) उत्तम गृहों को (क्षितिभ्यः) पृथ्वी में विराजमान देशों से (दिवि) प्रकाश में (अप्सु) प्राणों जलों वा अन्तरिक्ष में (आ) चारों ओर से (यच्छतु) देवे (यतः) जिससे (नः) हम लोगों को (प्रुष्णवत्) अच्छे ऐश्वर्ययुक्त जैसा (वसु) धन प्राप्त होवे ॥४॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थ लोगों को चाहिये कि सर्वदा सुखोत्पादक गृहों को निर्मित करके और जल स्थल अन्तरिक्ष मार्ग से गमन के लिये उत्तम वाहन तथा अन्य यन्त्रादि साधनों को रच कर सम्पूर्ण समृद्धियाँ सञ्चित करें, फिर उनसे अपना विज्ञान बढ़ावें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

स पूर्वोक्तो विद्वानग्निरिव वीतये नः शन्तमा शर्माणि क्षितिभ्यो दिव्यप्स्वा यच्छतु यतो नोऽस्मान् प्रुष्णवद्वसु प्राप्नुयात् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (नः) अस्मभ्यम् (शर्माणि) उत्तमानि गृहाणि (वीतये) विज्ञानादिधनप्राप्तये (अग्निः) पावक इव (यच्छतु) ददातु (शन्तमा) अतिशयेन शङ्कराणि (यतः) (नः) अस्मान् (प्रुष्णवत्) सुष्ठ्वैश्वर्य्ययुक्तम् (वसु) धनम् (दिवि) प्रकाशे (क्षितिभ्यः) भूमिस्थदेशेभ्यः (अप्सु) प्राणेष्वन्तरिक्षे वा (आ) समन्तात् ॥४॥
भावार्थभाषाः - गृहस्थैः सर्वदा सुखकराणि गृहाणि निर्माय जले पृथिव्यामन्तरिक्षे गमनाय यानानि साधनानि निर्माय सर्वाः समृद्धयः प्राप्तव्यास्ताभिर्विज्ञानं वर्द्धनीयम् ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - गृहस्थाने सदैव सुख देणाऱ्या गृहांचे निर्माण करून जल, स्थल, अंतरिक्ष मार्गाने गमन करण्यासाठी उत्तम वाहन व इतर यंत्र इत्यादी साधने निर्माण करून संपूर्ण समृद्धी वाढवावी, त्याने आपले विज्ञान वाढवावे. ॥ ४ ॥