अ॒ग्निर्होता॑ पु॒रोहि॑तोऽध्व॒रस्य॒ विच॑र्षणिः। स वे॑द य॒ज्ञमा॑नु॒षक्॥
agnir hotā purohito dhvarasya vicarṣaṇiḥ | sa veda yajñam ānuṣak ||
अ॒ग्निः। होता॑। पु॒रःऽहि॑तः। अ॒ध्व॒रस्य॑। विऽच॑र्षणिः। सः। वे॒द॒। य॒ज्ञम्। आ॒नु॒षक्॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब ग्यारहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में अग्न्यादि के दृष्टान्त से विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को कहा है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाऽग्न्यादिदृष्टान्तेन विद्वांसः किं कुर्युरित्याह।
यो मनुष्योऽध्वरस्य विचर्षणिर्होता पुरोहितोऽग्निरिव भवति स आनुषक् यज्ञं वेद ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नी, विद्वान पुरुष यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे हे जाणले पाहिजे.