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तं त्वा॒ विप्रा॑ विप॒न्यवो॑ जागृ॒वांसः॒ समि॑न्धते। ह॒व्य॒वाह॒मम॑र्त्यं सहो॒वृध॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ tvā viprā vipanyavo jāgṛvāṁsaḥ sam indhate | havyavāham amartyaṁ sahovṛdham ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। त्वा॒। विप्राः॑। वि॒प॒न्यवः॑। जा॒गृ॒ऽवांसः॑। सम्। इ॒न्ध॒ते॒। ह॒व्य॒ऽवाह॑म्। अम॑र्त्यम्। स॒हः॒ऽवृध॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:10» मन्त्र:9 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:8» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सत्य कहनेवाले विद्वान् पुरुष ! जो लोग (जागृवांसः) अविद्यारूप निद्रा से उठे विद्या में जागते हुए और (विपन्यवः) विशेषप्रकार से प्रशंसा किये गये (विप्राः) बुद्धिमान् जन (तम्) उन सम्पूर्ण विद्याओं के प्रकाश करनेवाले वक्ता (हव्यवाहम्) देने के योग्य विज्ञान के दाता (अमर्त्यम्) मनुष्य के स्वभाव से रहित होने से देवता स्वभाववाले (सहोवृधम्) बल से वा बल को बढ़ानेवाले (त्वा) आपको (सम्, इन्धते) प्रकाशित करते हैं, उनको आप सब ओर से शुभ गुणों के साथ प्रकाशित कीजिये ॥९॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् ही लोग विद्वानों के परिश्रम को जान सकते हैं, अन्य जन नहीं, इससे विद्वज्जन विद्वान् पुरुषों ही का सत्कार करें, मूर्खों का नहीं ॥९॥ इस सूक्त में अग्नि, परमात्मा और विद्वान् के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ यह दशवाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे आप्त विद्वन् ! ये जागृवांसो विपन्यवो विप्रास्तं हव्यवाहममर्त्यं सहोवृधं त्वा समिन्धते तान् भवान् सर्वतश्शुभैर्गुणैः प्रकाशयतु ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) सर्वविद्याप्रकाशकमनूचानम् (त्वा) त्वाम् (विप्राः) मेधाविनः (विपन्यवः) विशेषेण प्रशंसिताः (जागृवांसः) अविद्यानिद्रात उत्थिता विद्यायां जागरूकाः (सम्) (इन्धते) प्रदीपयन्ति (हव्यवाहम्) दातव्यविज्ञानप्रापकम् (अमर्त्यम्) मर्त्यस्य स्वभावराहित्येन देवस्वभावम् (सहोवृधम्) यः सहसा बलेन वर्धते बलस्य वर्धकं वा ॥९॥
भावार्थभाषाः - विद्वांस एव विदुषां श्रमं ज्ञातुं शक्नुवन्ति नेतरे, विद्वांसो विदुष एव सत्कुर्वन्तु न मूढानिति ॥९॥ अत्राग्निपरमात्मविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति दशमं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वान लोकच विद्वानाचे परिश्रम जाणतात, इतर नव्हे. त्यासाठी विद्वान लोकांनीच विद्वानांचा सत्कार करावा. मूर्खांचा नव्हे. ॥ ९ ॥