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पि॒तुश्च॒ गर्भं॑ जनि॒तुश्च॑ बभ्रे पू॒र्वीरेको॑ अधय॒त्पीप्या॑नाः। वृष्णे॑ स॒पत्नी॒ शुच॑ये॒ सब॑न्धू उ॒भे अ॑स्मै मनु॒ष्ये॒३॒॑ नि पा॑हि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pituś ca garbhaṁ janituś ca babhre pūrvīr eko adhayat pīpyānāḥ | vṛṣṇe sapatnī śucaye sabandhū ubhe asmai manuṣye ni pāhi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पि॒तुः। च॒। गर्भ॑म्। ज॒नि॒तुः। च॒। ब॒भ्रे॒। पू॒र्वीः। एकः॑। अ॒ध॒य॒त्। पीप्या॑नाः। वृष्णे॑। स॒पत्नी॒ इति॑ स॒पत्नी॑। शुच॑ये। सब॑न्धू इति॑ सऽब॑न्धू। उ॒भे इति॑। अ॒स्मै॒। म॒नु॒ष्ये॒३॒॑ इति॑। नि। पा॒हि॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:1» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:14» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (अस्मै) इस (शुचये) पवित्र (वृष्णे) वीर्य सेचनेवाले मनुष्य के अर्थ (सपत्नी) समान जिसका पति वह स्त्री (गर्भम्) गर्भ को (बभ्रे) धारण करती वह (एकः) एक गर्भ (पितुः) पालन करनेवाले (च) और सुन्दर अन्नादि और (जनितुः) जन्म देनेवाले पिता की (च) और धाई की उत्तेजना से जन्म पाकर (पूर्वीः) पहिले उत्पन्न हुई (पीप्यानाः) बढ़ती हुई प्रजा (अधयत्) दुग्ध पीती हैं वैसे (उभे) दोनों स्त्री पुरुष (सबन्धू) एक समान बन्धुओं के समान प्रीति रखनेवाले (मनुष्ये) मनुष्य के लिये जो हित उस के निमित्त (गर्भम्) गर्भ की रक्षा करते हैं वैसे हे विद्वन् एक होते आप (नि, पाहि) निरन्तर पालना करो ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब माता पिता गर्भ को धारण करते हैं और उस की रक्षा कर दुग्धपान आदि से बढ़ाते हैं, वैसे स्त्री पुरुष प्रीति को बढ़ाकर गर्भ को धारण कर उसे अच्छे प्रकार पाल मनुष्यों के हित के लिये अपने सन्तानों को विद्या ग्रहण करावें ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यथाऽस्मै शुचये वृष्णे सपत्नी गर्भं बभ्रे स एको गर्भः पितुश्च जनितुश्च सकाशाज्जन्म प्राप्य पूर्वीः पीप्याना अधयत्तथा उभे सबन्धू मनुष्ये गर्भं पातस्तथा हे विद्वन् एकः संस्त्वं सन्नि पाहि ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पितुः) पालकात् (च) धात्र्याः (गर्भम्) (जनितुः) जनकात् (च) सुअन्नादेः (बभ्रे) बिभर्त्ति (पूर्वीः) पूर्वं भूताः (एकः) (अधयत्) धयति पिबति (पीप्यानाः) वर्द्धमानाः (वृष्णे) वीर्यसंचकाय (सपत्नी) समाना पत्नी यस्याः सा (शुचये) पवित्राय (सबन्धू) समानौ बन्धूरिव वर्त्तमानौ (उभे) द्वे पुरुषः स्त्री च (अस्मै) (मनुष्यै) मनुष्येभ्यो हिते (नि) नितराम् (पाहि) रक्ष ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा मातापितरौ गर्भं धत्तस्तं संरक्ष्य दुग्धपानादिना वर्धयतस्तथा स्त्रीपुरुषौ प्रीतिं वर्धयित्वा गर्भान्धृत्वा संपाल्य मनुष्याणां हितायाऽपत्यानि विद्या ग्राहयेताम् ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा माता-पिता गर्भ धारण करतात व त्याचे रक्षण करून दुग्धपान इत्यादींनी वाढवितात, तसे स्त्री-पुरुषांनी प्रीती वाढवून गर्भ धारण करून त्याचे चांगल्या प्रकारे पालन करावे व माणसांच्या हितासाठी आपल्या संतानांना विद्या शिकवावी. ॥ १० ॥